अर्थ तंत्र
अर्थ तंत्र
बचपन में मैंने घर में देखा है बाबा का चीखना चिल्लाना। साड़ी के पल्लू से माँ का बार बार आँखें पोछते रहना। और दादी की वह खामोश निगाहें......
मेरी चुप्पी और गहरी होती थी जब माँ के संग मैं दादी का बर्ताव देखती थी। बिल्कुल दोहरा बर्ताव! बाबा के सामने अलग और माँ के सामने एकदम अलग!
बड़ी होते होते मुझे घर का अर्थ तंत्र समझ में आने लगा था। बाबा नौकरी करते है। उनकी नौकरी से हमारी ज़रूरियात पूरी होती है....
माँ का क्या? वह तो घर में ही रहती थी...घर का काम करती थी...घर के ढेर सारे काम....
मैंने ठान लिया था कि बड़ी होने पर मुझे नौकरी करके फ़ाईनेंशियली इंडिपेंडेंट होना है। मैं जी जान से पढ़ाई में जुट गयी। वक़्त के साथ नौकरी मिली और बाद में शादी भी हो गयी......
मेरा ऑफिस और होम फ्रंट को संभालना जारी रहा। माँ शायद मेरे में अपनी पूर्णता देखती थी। वह मेरे पर गर्व करती थी। सब कुछ सही चल रहा था। एक दिन किसी बात पर पति चिल्लाने लगे। घर में शोर शराबा बढ़ गया। बेटी जैसे सहम सी गयी...मेरा बचपन मेरी आँखों के सामने कौंध गया। हम दोनों पति पत्नी का ऑफिस में एक ही ओहदा था और हमारी तनख्वाह भी एक जैसी ही। मेरे पर उनका यूँ चीखना चिल्लाना मुझे खल गया। मुझे अभी तक लग रहा था की मेरी स्थिति मेरी माँ जैसी बिल्कुल नहीं है...... उनसे कई गुणा बेहतर है।
लेकिन आज पति के मुझ पर चिल्लाने से मुझे महसूस हुआ की मेरी स्थिति तो उनसे भी बदतर है...... नौकरी करने से या फ़ाईनेंशियली इंडिपेंडेंट होने से औरतें बस बड़ी बड़ी बातें करनी लगती है..... हक़ीक़तन उसकी हालत दो नावों की सवारी करने वाले किसी व्यक्ति की तरह होती है....
ढेर सारे काश के साथ अपराध बोध से भरी.....हमेशा ही किन्तु, परन्तु और काश के गुणाकर भागाकार में उलझी हुयी ......
लेकिन मैं कोई आम औरत नहीं हूँ .....
मुझे पति को बताना ही होगा ....
ये चीखने और चिल्लाने से बात नहीं बनेगी क्योंकि तुम्हारे सामने तुम्हारे माँ जैसी औरत नहीं है बल्कि नयी जनरेशन की औरत है जो अपने हक़ के लिए लड़ना जानती है......