अर्धांगिनी
अर्धांगिनी


बिकाऊ दरवाज़े पर आकर चुप चाप बैठा होवा था। हर तरफ सन्नाटा पसरा होवा था। लग रहा था की मातम का घर है।
अभी अगर मुलिया होती तो दस सवाल करती रमेश के बापू आपकी तबियत तो ठीक है ना सर मे दर्द तो नहीं ढेरों सवाल पूछ कर खा मोखा गुस्सा दिला देती। वो जैसे ही डेरे पर से मवेशी को बांध कर आता मुलिया हाथ मे चाय और एक छोटी तस्तरी मे नमकीन या फिर कुछ ना कुछ खाने का लेकर खड़ी रहती।
बिकाऊ उसे देख झिरक देता कम से कम मुँह हाथ तो धोने दे। कलेज़े पर चाय लेकर सवार हो जाती है। बस मुलिया धीरे से मुस्कुरा कर कहती ऐ जी ज़ब मै मर जाऊंगी तब एहसास होगा ज़ब बेटे बहु देर से चाय देंगे चल चल जायदा बाते ना बना आज बिलकुल वैसे ही होवा आज कोई कलेजे पर चाय लेकर नहीं खड़ा था। बहु को लगा की बेटी ने तो चाय दे दिया होगा। बेटी को लगा की भाभी ने तो चाय दे दिया होगा।
इंतजार करते करते खुद ही आवाज लगा दी एक कप चाय मिलेगी क्या तब बड़ी बहु धीरे धीरे सरकते होय बिंबिनाते होय बोली सारा काम मेरे जिम्मे ही सब छोड़ देते है कोई बाबू जी को एक कप चाय नहीं दे सकता।
और कुछ देर बाद पोती हाथो मै चाय की कप लेकर आए आज साथ मे कोई छोटी तस्तरी नहीं थी।
बिकाऊ जाकर बिस्तर पर लेट गया।
आज सब कुछ सुना सुना लग रहा था। मुलिया और बिकाऊ की शादी आज से तीस साल पहले होय थी. बिकाऊ को मुलिया पसंद नहीं थी। पर बापू के डर से शादी तो कर ली पर उसे चाह कर भी पत्नी का दर्ज़ा नहीं दिया वक़्त गुजरता गया मुलिया तीन बच्चो की माँ बन गई। मगर उसे बिकाऊ के आँखों मे वो प्यार कभी और इज्जत नहीं दिखा जिसे वो तलाश कर ती पर उसने कभी कोई शिकायत नहीं की वो अपने अर्धांगिनी होने का पूरा फर्ज़ निभाती. कभी कभी बिकाऊ गुस्से मे आकर उस पर हाथ उठा बैठ ता। कुछ देर रो धोकर वो वैसे शांत होती जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो उसे उम्मीद था की एक ना एक दिन बिकाऊ की आँखों मे उसके लिए प्यार जरूर झलकेगा इसी उम्मीद मे उसने अपने तीस साल काट दिए।
ज़ब कोई विशेष पकवान बनता तो उसे बहुत प्यार से परोस परोस कर खिलाती जिसका उसकी बहुए भी मज़ाक उरति उसने अपने मन के मंदिर मे देवता की जगह दे दी थी। अचानक मुलिया को तेज़ बुखार आया और वो इस दुनिया से चल बसी बिकाऊ के आँखों मे अपने अर्धांगिनी के लिए प्यार झलका भी पर बेचारी मुलिया वो प्यार देख नहीं पाई।
बिकाऊ को चाय तो अब भी मिलती है पर कोई चाय लेकर कलेजे पर सवार नहीं होता।