अनटच्ड सब्जेक्ट्स
अनटच्ड सब्जेक्ट्स
सदियों से लेखक प्यार मोहब्बत की हीर राँझा, शीरी फरहाद और लैला मजनूँ टाइप की कहानियाँ लिखते जा रहे हैं…कभी कभी मुझे लगता हैं मैं इन लेखकों जैसे प्यार मोहब्बत वाले सब्जेक्ट्स पर लिखना बंद कर दूँ। कुछ सीरियस और कुछ अनटच्ड सब्जेक्ट्स पर लिखना शुरू कर दूँ…
लेकिन…
मेरा मन फिर मुझे वार्न करने लगता हैं… क्या मैं ऐसे किसी सब्जेक्ट्स पर लिख सकूँगी?
मेरी इमेज..
मेरी इमेज का क्या होगा? क्योंकि कई बार पाठकों को लगने लगता हैं की लेखक उनकी रचनाओं में जैसे अपनी लाइफ़ का ही चित्रण करते हैं…
लेकिन मेरा दूसरा मन झट से कहता "लेखक को किसी भी सब्जेक्ट्स पर लिखना आना चाहिए…लेखक ख़ुद को गर किसी सीमा रेखा में बाँध ले तब उसकी क्रिएटिविटी का क्या? उसकी क्रिएटिविटी तो जैसे मर जाएगी…
जब भी मैं काग़ज़ कलम लेकर लिखने बैठती हूँ तब तब मेरे मन में ढेर सारे टॉपिक आते रहते हैं...
जैसे एक बिन ब्याही माँ…उस बेबी के साथ उसका स्ट्रगल...ज़िन्दगी के साथ और समाज के तानों के बीच उसकी वह तमाम तरह की दुश्वारियाँ…
अनाथालय में रहने वाले उन तमाम अनाथ बच्चों की कहानियाँ… हर अनाथ बच्चे की अलग ही कहानी होगी...
ट्रैफिक सिग्नल पर भीख माँगते बच्चों की ग्रीन से रेड होकर अचानक ब्रेक लग कर रुक जाने वाली जैसे कोई कहानी…
खुले आसमाँ के नीचे गहरी नींद सोने वाले उन गरीब परिवार की कहानी…
ट्रैफ़िक सिग्नल पर भीख माँगते उन सजे धजे किन्नरों की कहानी…हर एक किन्नर की अलग अलग कहानी…
तो क्या लिखना शुरू कर दूँ मैं ट्रैफिक सिग्नल्स और ट्रेन में भीख माँगते उन किन्नरों पर एक कहानी ?
पाठक ऐसे किसी कहानी पर कैसे रिएक्ट करेंगे?
किन्नरों को जब हमारा समाज एक्सेप्ट नहीं करता हैं तो क्या पाठक भला किन्नरों की ऐसे किसी कहानी को एक्सेप्ट करेंगे? वे भी तो इसी समाज का हिस्सा हैं…क्या वे उनके दर्द को महसूस कर सकेंगे भला?
कोई पाठक उद्विग्न हो कर कह सकता हैं की ये सारे किन्नर हट्टेकट्टे होने के बावजूद भीख माँगते रहते हैं…ज़बरदस्ती करते हैं…उल जलूल हरकतें करते रहते हैं…कभी कभी उनकी हरकतों को देखकर शर्म आती हैं… तब तो बस कुछ रुपए देकर उनसे पीछा छुड़ाना ही बेहतर सलूशन होता हैं…
ऐज ए संवेदनशील राइटर मुझे हमेशा से ही उन निरीह और मज़बूर किन्नरों के प्रति समाज के इस पक्षपात पूर्ण रवैये को देखकर असहायता महसूस होती हैं…उनकी वे हरकतें भी तो रिवर्स साइकोलॉजी का हिस्सा हैं…समाज के अपने प्रति होने वाला यह नॉन ऐक्सेप्टेंस…हर जगह गिव एंड टेक ही तो होता हैं…क्योंकि किसका बर्थ कहाँ हो? किस रूप में हो? ये किसी के हाथ में नहीं होता हैं....इसपर किसी का कोई जोर नहीं चलता हैं…उन किन्नरों को अपनी इस बेगुनाही की सज़ा उनको ताउम्र भुगतना पड़ती हैं…उनको क्या समाज में ऐक्सेप्टेंस हैं? वे बेचारे हाशिए पर खड़े रहने वाले लोग…समाज के उन अनदेखें और अनकहें कानूनों से बुरी तरह जकड़े हुए...ना तो उन्हें कोई काम देता हैं और ना ही वे अपना कोई काम कर सकते हैं…इतना की उनको कोई अपने पास आने भी देता हैं...
नहीं… नहीं..ऐज ए राइटर मुझे इतना रिस्क नहीं लेना चाहिए…इस इंटरनेट के ज़माने में वैसे भी पाठक कम मिलने लगे हैं…किन्नरों के कारण…उनकी कहानियाँ और कविताओं से मैं अपने पाठक…अपने फॉलोअर्स को खोना नहीं चाहूँगी…
मैं इस असहायता से फिर इस कहानी के रफ़ ड्राफ्ट वाले काग़ज़ को हाथों से मसलकर डस्टबिन में फेंक देती हूँ…
लिखना ही तो एक लेखक की ज़िन्दगी होती हैं…इसी से शाम को फिर से काग़ज़ कलम लेकर ट्रैफिक सिग्नल पर भीख माँगते और खिलौने बेचते बच्चों पर कोई कहानी लिखना शुरू कर देती हूँ…हाँ, यह एक अच्छा सब्जेक्ट हो सकता हैं…
लेकिन खिलौने के साथ खेलने की उम्र में खिलौने बेचते उन बच्चों के मन को सोचते ही जैसी मेरी कलम रुक सी जाती हैं…भीख माँगते बच्चों को देख कर मुझे समाज पर गुस्सा आने लगता हैं…इन महँगी गाड़ियों में बैठ कर लोग कैसे हिक़ारत से कुछ सिक्के देकर अपनी निगाहें फेर कर सिग्नल के ग्रीन होने से पहले ही शोर करते हुए गाड़ियों को भगा कर ले जाते हैं…शायद वह भी उन बच्चों से आँख नहीं मिला पाते हैं…उनसे पीछा छुड़ाना चाहते हैं…शायद ज़िंदगी जीने का यही तो सबसे आसान तरीका हैं…ना कोई गिल्ट और ना ही कोई परेशानी भी…
मैं फिर एक बार अपनी नाकाम कोशिश में ट्रैफ़िक सिग्नल पर खिलौने और गुब्बारें बेचते उन बच्चों पर चन्दा मामा या फिर रंगबिरंगे तितलियों वाली कविता लिखने लगती हूँ…मुझे मेरी ही वह कविता झूठे अल्फ़ाज़ों से भरी कोई बेकार सी रचना लगती हैं…मुझे लगने लगता हैं की इस कहानी को पब्लिशर भी शायद छापने के लिए आनाकानी ही करेगा...मैं रफ़ ड्राफ्ट वाले तमाम काग़ज़ फिर से मसलकर डस्टबिन में फेंक देती हूँ …
लेखिका हूँ तो लेखन तो करना ही होगा…मुझे लिखना ही होगा…नहीं…नहीं…ऐसे तो नहीं चल सकेगा…आज का दिन नया हैं…सुबह सवेरे लिखना अच्छा होगा यह सोचते हुए बिन ब्याही माँ वाली कहानी काग़ज़ पर लिखना शुरू कर देती हूँ …
बढ़े हुए पेट के साथ लड़की का प्रेमी के घर जाने पर उस के घर वालों का वह रवैया लड़की के कहीं गुमान में भी नहीं था…कहाँ तो वह इस घर में गाजे बाजे के साथ दुल्हन के रूप में आने के ख़्वाब सँजो कर बैठी थी…और आज…कितना कुछ बदल गया एक झटके में ही…एक इनकार में…सब कुछ बदल गया…सारे ख़्वाब भरभराकर बिखर गए…प्रेमी महाशय तो शादी के वादे करते करते ग़ायब हो गए…पुरुष इस मामले में लकी हैं…सब कुछ करके ग़ायब होने की सुविधा से लैस…
उसके मन की व्यथा और समाज के साथ उसका एकतरफ़ा संघर्ष..वह ख़्वाब देखती लड़की…अचानक से जैसे एक औरत बन गयी…माँ बाप के मुँह मोडते ही उसका स्टेटस बदल गया…इतनी बड़ी दुनिया में निपट अकेली औरत…
भविष्य का कोई ठिकाना नहीं…और वर्तमान? माँ बाप के घर में एंट्री नहीं…प्रेमी महाशय ग़ायब…एक जवान और बेसहारा औरत…अपनी और पेट में पलते बेबी की चिंता में मगन…
मुझे लगता हैं यह कहानी भी पाठकों भी रास नहीं आयेगी…किसे पसंद आएगी यह रंज भरी कहानी भला? आजकल वैसे ही हर व्यक्ति ग़मजदा हैं…रोज़गार..तन्हाई…AI की टेंशन..और भी न जाने क्या क्या…फिर क्या..यह ड्राफ्ट भी मैंने डस्टबिन में फेंक दिया…
मैं अब नहीं लिख पाऊँगी उन आसमाँ के नीचे गहरी नींद सोने वाले गरीब परिवारों और उन अनाथ बच्चों पर कहानी …उन सारे बच्चों का अनाथालय की दीवारों से अपने माँ के बारें में हज़ारों सवाल करना… जिसके कोई भी जवाब उनको नहीं मिलते हैं…
मुझे भी मेरे कई सवालों के जवाब नहीं मिलते…अब मैं भी लिखना बंद कर देती हूँ…यह काग़ज़ और यह कलम मेरे किसी काम की नहीं हैं…फिर रहने देते हैं ना उन अनटच्ड सब्जेक्ट्स को वैसे ही अनटच्ड…
