Manish Mehta

Romance Tragedy Inspirational

4.3  

Manish Mehta

Romance Tragedy Inspirational

अनमोल साथी (भाग 2)

अनमोल साथी (भाग 2)

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(यह इस कहनी का भाग 2 है, यदि आपने भाग 1 अब तक नहीं पढ़ा तो कृपया पहला भाग पहले पढ़ें और कहनी का पूरा आनंद लें। भाग 1 भूमिका रूप में अति आवश्यक है)


विलास उस रात काफ़ी देर तक सो नहीं पाया, रह-रह कर लक्ष्मी का उदास चेहरा उसकी नज़रों के सामने आ रहा था। विलास ने बग़ल की मेज़ पर रखे फ़ोन में समय देखा तो चौंक गया घड़ी में एक दस हो चले थे अनुशासनबद्ध विलास के लिए यह अनुभव नया था, उठकर बैठा तो सोचने लगा, लगता है आज गर्मी ज़्यादा है और पंखा भी कितनी आवाज़ कर रहा है शायद इसी की आवाज़ से नींद नहीं आ रही फिर अगले ही पल सोचने लगा पर पंखा तो रोज़ इतनी ही आवाज़ करता है तो आज ऐसा क्या हो गया। कई बार अपनी मनोवस्था को हम ख़ुद नहीं समझ पाते या शायद जानते हुए भी स्वीकार नहीं करते, बस कुछ इसी प्रकार की कशमकश से विलास गुज़र रहा था। जैसे तैसे विलास की आँख लगी। रात देर तक न सो पाने के कारण सुबह देर से आँख खुली तो लाइब्रेरी पहुँचने में भी देर हो गयी।


लाइब्रेरी पहुँचकर विलास ने अपना काम संभाला और हर रोज़ की तरह एक पुस्तक लेकर काउंटर की अपनी निर्धारित जगह की ओर चल दिया, सामने देखा तो लक्ष्मी वहीं काउंटर के पास खड़ी उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। विलास समझ गया कि वह लाइब्रेरी की सदस्यता के लिए लगने वाले डॉक्यूमेंट लायी है जो उसी ने लक्ष्मी से लाने को कहा था। उसने लक्ष्मी के पास जाकर हल्के स्वर में पूछा “तुम डॉक्यूमेंट ले आयी” लक्ष्मी ने बिना कुछ कहे एक लिफ़ाफ़ा विलास के हाथ में थमा दिया। काग़ज़ देखने के बाद विलास बोला “सब ठीक है, कल तक तुम्हारा कार्ड बनवा दूँगा और हाँ बस दो फ़ोटो चाहिए” लक्ष्मी ने उत्तर दिया “हाँ वह भी लायीं हूँ” और अपनी बग़ल में लटके बैग से दो फ़ोटो निकाल कर विलास की ओर बढ़ा दी। लक्ष्मी वहीं काउंटर पर खड़ी थी और विलास ने सभी चीज़ों को सहेज कर पीछे वाली मेज़ की दराज़ में रख दिया। लक्ष्मी बोली “थेंक्यू विलास, अब मैं चलती हूँ, कल किस समय आऊँ” विलास ने पलटकर देखा और बोला “कल दोपहर तक हो जाएगा, रुको चाय पीकर जाना” “नहीं आज नहीं पर्व घर पर अकेला है। पर्व मेरा बेटा, बताया था ना। पड़ोस की भाभी को घर बैठा कर आयीं हूँ बोलकर कि जल्दी आ जाऊँगी। अच्छा कल मिलते हैं” बोलकर लक्ष्मी मुड़कर बाहर की तरफ़ चल दी। लाइब्रेरी के दरवाज़े तक विलास उसे देखता रहा फिर अपने काम में लग गया।


अगले दिन लक्ष्मी तय समय पर अपना कार्ड लेने आयी और दोनों फिर बग़ल की उसी दुकान पर चाय की चुस्की लेते हुए बातें करने लगे, विलास को अपने यहाँ आने का न्योता देते हुए लक्ष्मी बोली “विलास रविवार को यदि कुछ नहीं कर रहे तो दोपहर का खाना हमारे साथ करो, मुझे और पर्व को अच्छा लगेगा और वैसे भी तुम तो कभी अपने घर मुझे बुलाओगे नहीं” “घर नहीं मेरा तो एक कमरा है बस” विलास ने हिचकिचाते हुए उत्तर दिया और बात आगे बढ़ाते हुए बोला “पर तुम जब चाहे आ जाओ यहीं पास ही में है उमा सिनेमा से बाईं ओर चूरा गली पहुँच कर फ़ोन कर देना मैं लेने आ जाऊँगा” “आऊँगी कभी तुम्हारे हाथ की चाय पीने” लक्ष्मी ने चाय की चुस्की लेते हुए कहा “तो इस रविवार को आ रहे हो ना” लक्ष्मी ने चाय का खली गिलास रखते हुए पूछा “हाँ ज़रूर आऊँगा, अच्छा अब चलता हूँ कुछ नई किताबों का लॉट आया है उन्हें रजिस्टर में चढ़ा कर शेल्फ़ में क्रम से लगाना है” विलास ने ख़ाली गिलास रखकर उत्तर दिया “ठीक है तो रविवार को मिलते हैं” कहकर लक्ष्मी और विलास दोनो अपने अपने रास्ते चल दिए।


रविवार का दिन विलास घर से निकलने को ही था तो सोचने लगा क्या कुछ लेकर जाना चाहिए, यदि हाँ तो क्या? उपहार आदि ख़रीदने का विलास का अनुभव उतना ही था जितना किसी तर्कशास्त्री का किंतु और परंतु के बिना सवाल कर जाना, लेकिन वह ख़ाली हाथ भी नहीं जाना चाहता था। अपनी इसी उधेड़बुन में वह घर से निकल गया और रास्ते में कई दुकानों को देख अपने उसी प्रश्न को मन ही मन दोहराता रहा। अंत में विलास को कुछ पसंद आया तो उसी को लिफ़ाफ़े में डाल ख़ुशी-ख़ुशी लक्ष्मी के घर की तरफ़ चल दिया। दरवाज़े पर पहुँच विलास ने घंटी बजाई और पहली बार किसी इंटरव्यू में शिरकत कर रहे युवा की भाँति अपनी क़मीज़ का कॉलर ठीक करने लगा। लक्ष्मी ने दरवाज़ा खोला और मुस्कुरा कर बोली “आओ विलास वेलकम” विलास ने भीतर पाँव रखा और उपहार का लिफ़ाफ़ा लक्ष्मी के हाथ में थमा दिया। लक्ष्मी ने तुरंत लिफ़ाफ़े से एक पुस्तक निकाली और दबी हँसी में तंजिया अन्दाज़ में बोली “हाहाहाहा क्या किताब है....दर्शनशास्त्र की रूपरेखा.....कमाल की पसंद है तुम्हारी, मैं भी कब से सोच रही थी भारतीय दर्शन पर भी कुछ पढ़ लूँ....हिहिही” विलास अकबका सा खड़ा रहा उसे पूरे पंद्रह मिनिट लगे थे इस किताब के चुनाव में और सोचा था लक्ष्मी को पसंद आएगी, लक्ष्मी ने विलास के चेहरे के भाव देखे तो बात बदलते हुए बोली “अच्छा आओ तुम्हें अपने बेटे से मिलाती हूँ” और उसने तेज़ आवाज़ में चिल्ला कर पर्व को पुकारा, विलास को चिल्लाना बिलकुल नहीं भाता था वह अक्सर सोचता था कि लोग चिल्लाकर बात क्यूँ करते हैं। दूसरे कमरे से एक छोटा सा क़रीब दो साल का बच्चा दौड़ता हुआ आया उसके बाल बिखरे और मुँह पर चाकलेट लगा था, लक्ष्मी ने तुरंत उसका मुँह पोंछा और बाल सँवारते हुए बोली “विलास यही है मेरा शरारती पर्व, मेरा बेटा....पर्व अंकल को हेलो बोलो” पर्व ने एक तीखी तेज़ आवाज़ में बोलना शुरू किया “हेलो अंकल आपका नाम क्या है, आप मेरे लिए चाकलेट नहीं लाए” इससे पहले विलास कुछ कह पाता लक्ष्मी ने उत्तर दिया “पर्व इनका नाम विलास है, आओ विलास खाना तैयार है पहले कुछ खा लेते हैं फिर आराम से बातें करेंगे” विलास हैरान था कि अब तक तो उसने कुछ बोला भी नहीं था पर एक तरह से अच्छा ही है क्यूँकि विलास को बच्चों का साथ कुछ ख़ास पसंद भी नहीं था, दरसल विलास को किसी के साथ की न तो आदत थी और न उसे बात ही करना आता था। खाने की टेबल पर भी विलास चुपचाप खाना खाने में व्यस्त था और लक्ष्मी पर्व के अजीब सवालों के उत्तर देने में। पर्व एक जिज्ञासु बालक की भाँति कभी खाने पर सवाल करता तो कभी विलास के बारे में कुछ पूछने लगता। विलास उत्तर न देकर बस लक्ष्मी की तरफ़ देखकर मुस्कुरा देता, लक्ष्मी एक अच्छी माँ की तरह उसके हर सवाल का जवाब भी देती और साथ ही अपने हाथ से निवाला बना पर्व को खिलाती जाती। विलास मन ही मन सोचने लगा कि लोग किस तरह बच्चों को पाल लेते हैं, मैं तो इस बच्चे के साथ कुछ घंटे भी नहीं बिता पाऊँ, न जाने लक्ष्मी में इतना धैर्य कैसे है, इसके कभी ना ख़त्म होने वाले सवाल मेरी तो समझ के भी बाहर हैं, उस पर ये तीखी और कानों में लगने वाली आवाज़ उफ़। भोजन के बाद विलास ने थोड़ी देर दोनों माँ बेटे की बातें सुनी फिर इजाजत ले वहाँ से जाना ही उचित समझा। लक्ष्मी भी उसकी स्थिति समझ रही थी वह जानती थी कि विलास सदा अकेला रहा है और किसी से घुलना मिलना पसंद नहीं करता आख़िर लक्ष्मी भी तो उस अवस्था से निकल चुकी थी इसलिए जानती थी कि एक दिन विलास बहुत अच्छा पति और पिता बनेगा। दरवाज़े पर लक्ष्मी विलास को छोड़ने आयी और उसे हाथ हिला कर वहीं से अलविदा कहा।


अगले दिन लक्ष्मी कुछ किताबें लेने लाइब्रेरी आयी। इसी तरह हर सोमवार वह कुछ किताबें ले जाती और अगले सप्ताह उन्हें लौटा कर कुछ और नई किताब ले जाती। कई बार दोनो अक्सर बग़ल की दुकान पर चाय भी पीने जाते और खूब बातें किया करते। अधिकतर लक्ष्मी ही बोलती रहती और विलास सुनता रहता। यह अगले दो साल तक चलता रहा। एक दिन लक्ष्मी और विलास उसी बग़ल की दुकान पर चाय पी रहे थे तो एकाएक विलास उदास मन से बोला “लक्ष्मी मेरी पीएचडी पूरी हो गयी और” इससे पहले विलास कुछ कह पाता लक्ष्मी ने बीच में टोकते हुए बोला “अरे बुद्धु इतनी ख़ुशी की बात चेहरा लटका कर बोल रहे हो! बहुत-बहुत मुबारक हो डॉक्टर साहब! चलो मुँह मीठा कराओ” “हाँ सो तो है अपने नाम के आगे डॉक्टर लगा देखना कई वर्षों से मेरा सपना था पर मुझे कानपुर यूनिवर्सिटी में नौकरी का प्रस्ताव आया है, लाइब्रेरी में आने वाले प्रोफ़ेसर दासगुप्ता को शायद तुम जानती हो, वह आजकल कानपुर विश्वविद्यालय में ही हैं उन्हीं ने मुझे कानपुर बुलाया है” लक्ष्मी पल भर निराश हो एक नक़ली मुस्कुराहट चेहरे पर बिखेरे बोली “अरे तो इसमें परेशान होने जैसी क्या बात है, इतनी जल्दी इतना अच्छा प्रस्ताव किसी को मिलता है भला। तुम ख़ुशी-ख़ुशी जाओ और मन लगा कर काम करो, वैसे कानपुर है ही कितना दूर जब मन करे चले आना” “शायद छः महीने से पहले आ पाना मुमकिन न हो” विलास ने पलटकर उत्तर दिया “तो कोई बात नहीं मैं तुमसे मिलने चली आऊँगी और कल मैं तुम्हारे घर आ रही हूँ देखूँ तो सही डॉक्टर विलास कैसी आवभगत करते हैं, चाय तो पिलाओगे ना” लक्ष्मी ने अपने चिरपरिचित अन्दाज़ में बात की गंभीरता को हल्का करते हुए कहा “हाँ हाँ ज़रूर” विलास ने उत्तर दिया।


रोज़ की तरह लाइब्रेरी का काम ख़त्म कर विलास बाहर आया, वह आज जल्दी घर पहुँचना चाहता था आख़िर दो साल में पहली बार लक्ष्मी उसके घर जो आ रही थी। जैसे ही विलास लाइब्रेरी के बाहर आया लक्ष्मी ने पीछे से आकर अचानक उसे चौंका दिया “अरे तुम यहाँ कैसे” विलास ने पूछा “मैंने सोचा साथ ही चलते हैं” लक्ष्मी ने कहा, विलास फिर बोला “और पर्व, वह कहाँ है” “बराबर वाली भाभी के घर छोड़ कर आयीं हूँ, उनके बच्चों के साथ ख़ुश रहता है और मुझे भी थोड़ा समय मिल जाता है ख़ासकर जब मुझे कुछ पढ़ना हो, चलो जल्दी या आज भी यहीं की चाय पिलाने का मन है” विलास ने मुस्कुराकर चलना शुरू किया। घर पहुँचकर जैसे ही विलास ने दरवाज़ा खोला तो लक्ष्मी हर तरफ़ किताबें देख फ़टाक से बोली “अरे इसे घर नहीं मिनी लाइब्रेरी कहा करो” विलास भी हँस दिया और दोनों के लिए चाय बनाने लगा, वहीं लक्ष्मी सामने की शेल्फ़ पर लगी किताबों को देखने लगी और बोली “तो कब जा रहे हो कानपुर” विलास ने कप में चाय डालते हुए बोला “बस इसी महीने के अंत तक निकल जाऊँगा, एक तारीख़ से जोईनिंग है” इसके बाद दोनों ने कई बातें की, कभी मुंगेर के अपने कॉलेज के दिन तो कभी पटना के अपने संघर्ष के दिनों को याद करते दोनों हँसे भी और संजीदा भी हो उठे।


उस दिन के बाद लक्ष्मी लाइब्रेरी में नहीं आयी, समय बीता और आज विलास के जाने का दिन आ गया। विलास स्टेशन पर लक्ष्मी का इंतज़ार करता रहा पर वह नहीं आयी और मायूस हो विलास कानपुर के लिए चल दिया, वह लक्ष्मी के न आने का कारण शायद समझ रहा था। कानपुर पहुँच कर विलास अपने नये जीवन में व्यस्त हो गया पर लक्ष्मी को भूला नहीं लेकिन वह फ़ोन कर या वापिस जाकर लक्ष्मी को निराश नहीं करना चाहता था। वह अपनी परिस्थिति के साथ जीना सीख चुका था और यही कामना वह लक्ष्मी के लिए भी करता था।


दो वर्ष बीत गये और विश्वविद्यालय कोरोना के चलते पिछले सात माह से बंद था लेकिन विलास कानपुर छोड़कर नहीं गया। एक दिन उसके नाम यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी में एक चिट्ठी आयी, अगली सुबह जब लाइब्रेरियन का फ़ोन आया तो विलास को लगा हो न हो यह लक्ष्मी की ही चिट्ठी होगी। विलास बिना विलंब के लाइब्रेरियन से मिलने आया और चिट्ठी पढ़ने लगा।


प्रिय विलास, 

तुम्हें जब तक यह चिट्ठी मिलेगी शायद मैं इस दुनिया में नहीं रहूँगी। तुम्हें फ़ोन कर पाने की हिम्मत नहीं जुटा पाई इसलिए इस काग़ज़ पर लिख कर अपनी बात तुम तक पहुँचा रही हूँ। मैं हमेशा से क़िस्मत को कोसती आयी कि मैंने जो चाहा वह नहीं मिला, न परिवार, न प्यार और न ही लम्बी उम्र, पर क़िस्मत मुझ पर कुछ तरस दिखा गयी जो तुम्हारे जैसा दोस्त और पर्व जैसा बेटा मिला। मुझे अपनी चिंता नहीं है मेरे पास खोने को है ही क्या, पर पर्व जिसने अभी जीवन में कुछ नहीं देखा उसकी चिंता है, मैं नहीं चाहती कि उसका जीवन भी मेरी और तुम्हारी तरह किसी अनाथालय में बीते। मैं जानती हूँ यदि पर्व तुम्हारे साथ रहेगा तो तुम्हारी ही तरह एक क़ाबिल और नेक इंसान बनेगा। मुझ पर एक आख़िरी एहसान करना कि पर्व को अपने साथ रखना और उसे मेरी कमी महसूस न होने देना।

                     तुम्हारी अभागिन मित्र

                          लक्ष्मी 



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