Manish Mehta

Others

4.1  

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अनमोल साथी (भाग 3)

अनमोल साथी (भाग 3)

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(यह इस कहनी का अन्तिम भाग है, यदि आपने भाग 1 और 2 अब तक नहीं पढ़ा तो कृपया पढ़ें और कहनी का पूरा आनंद लें। पूरी कहानी को समझने के लिए भाग 1 और 2 का पढ़ना अति आवश्यक है)


चिट्ठी पढ़ते ही विलास का चेहरा भाव विहीन हो उठा, वह निशब्द खड़ा कभी आकाश को देखता तो कभी उस काग़ज़ के टुकड़े को जो ऐसा समाचार लाया था जिसकी कल्पना भी विलास ने नहीं की थी। साथ खड़े लाइब्रेरियन शर्मा जी ने भाँप लिया कि हो न हो किसी अप्रिय बात को पढ़कर विलास को गहरा सदमा लगा है, उन्होंने विलास के कंधे पर हाथ रखा और पूछा “सब ठीक तो है ना प्रोफ़ेसर साहेब” विलास ने शर्मा जी की ओर देखा और दो-तीन बार नहीं में सर हिला दिया। विलास मुट्ठी में चिट्ठी को ज़ोर से दबाये पलट कर सर झुकाए वापिस अपने रास्ते चल पड़ा, वह कुछ न बोला और न ही उसकी आँख से एक भी आँसू निकला। कमरे में पहुँच कर विलास को ख़त की पहली पंक्ति याद आ गयी जिसमें ‘शायद’ का उपयोग था, विलास को न जाने क्यूँ महसूस हुआ कि लक्ष्मी ठीक होगी, आख़िर उसकी उम्र ही क्या थी? अभी उसने देखा ही क्या है? उसके साथ ऐसा कैसे हो सकता है? ऐसे ढेरों सवाल विलास के मस्तिष्क में गूँज रहे थे। विलास ने तुरन्त अपना फ़ोन उठा लक्ष्मी का नम्बर मिलाया पर जब बार बार के प्रयास के बाद भी फ़ोन बंद आया तो उसने तुरन्त पटना जाने का निर्णय किया। 


इस करोना काल में पटना पहुँचना विलास के लिए आसान नहीं था, पर व्यक्ति का दृढ़-निश्चय कहाँ इन बाधाओं के आगे झुका है। पूरा एक दिन लगा, आख़िर विलास पटना पहुँच ही गया। पटना की सूनी और वीरान पड़ी सड़कें, बंद दफ़्तर, बंद यातायात और यहाँ वहाँ चंद लोग देख विलास को एक नए से शहर का आभास हो रहा था, यह वह पटना नहीं था जिसे वह जानता था। कई वर्षों तक विलास ने पटना के इस डाक बंगला चौराहे से हर रोज़ अपनी सुबह की शुरुआत की थी, यहीं से सुबह लाइब्रेरी के लिए जाना और शाम ढले यहीं से वापिस आना, चौराहे पर सामने की ओर लम्बी सड़क गाँधी मैदान को जाती थी और दाँईं ओर की तरफ़ जाने वाली सड़क स्टेशन को, पर आज दृश्य वैसा न था जैसा विलास की स्मृति में था। विलास अक्सर शहर के शोर को मन ही मन कोसता था, बिना कारण हॉर्न बजाते असभ्य वाहन चालक और आँख मूँद कर चलते लोग उसे हमेशा ही इस शहर के भविष्य के लिए आशाहीन से प्रतीत होते थे, आज वह सब न पाकर भी विलास कुछ प्रसन्न नहीं था। एक गाँव, शहर, राज्य या देश इमारतों, सड़कों, चौराहों इत्यादि का नाम नहीं, वह बनता है लोगों से, सोच से और इन सबसे ऊपर हमारे विश्वास से। जिस शहर के शोर को विलास बर्दाश्त नहीं कर पाता था आज उसी शोर को वह मानो ढूंढ रहा था। हम सब न जाने किस तलाश में जीवन की यह विचित्र यात्रा तय करते हैं, जो पास होता है उसे कभी महत्व नहीं देते और जब वह दूर हो तो उसे तलाशते फिरते हैं।


लक्ष्मी के घर पहुँचकर विलास दरवाज़े पर कुछ डरा और सहमा खड़ा था, वह उस अशुभ समाचार की पुष्टि होते नहीं देखना चाहता था, जो उसने चिट्ठी में पढ़ा था। विलास ने घबराकर घंटी बजायी, थोड़ी देर रुकने पर जब उसने नीचे देखा तो दरवाज़े पर बाहर लगा ताला उसे भयभीत करने के लिए काफ़ी था। विलास ने सोचा हो सकता है लक्ष्मी अस्पताल में हो, पड़ोस वालों को तो ज़रूर पता होगा उनसे पूछ लेना ठीक होगा। पड़ोस के मकान पर जब विलास ने दरवाज़े पर दस्तक दी तो एक महिला बाहर आयी, उसने मुँह पर मास्क लगा रखा था और थोड़ी परेशान लग रही थी, महिला ने दूरी बनाते हुए पूछा “जी आप कौन” विलास ने धीमे स्वर में पूछा “माफ़ कीजिए, आपके पड़ोस में लक्ष्मी जी रहती हैं बता सकती हैं वह किस अस्पताल में हैं? मैं उन्ही से मिलने आया हूँ” महिला स्थिर खड़ी रही और उसकी आँखो से आँसुओ की झड़ी फूट पड़ी रोते हुए उसने विलास के कहा “आपने आने में देर कर दी भैया, लक्ष्मी दो दिन हुए हम सब को छोड़कर चली गयी” विलास की पेशानी सिकुड़ गयी और आँखों में नमी, जिसे वह कब से थामे बैठा था प्रकट हो उठी, सिसकी भरते हुए वह महिला फिर बोली “आप विलास हैं न?” विलास ने आश्चर्य से उस महिला को देखा और हाँ में सर हिला दिया, महिला ने फिर बोलना प्रारम्भ किया “लक्ष्मी अक्सर आपकी बात किया करती थी और आपका फ़ोटो देखा है मैंने उसके फ़ोन में, बड़ा मानती थी आपको, हमेशा कहती थी आज के समय में ऐसा पुरुष मित्र मिलना असम्भव है, जी मेरा नाम उमा है, कृपया भीतर आइए” विलास कुछ पल वहीं किंकर्तव्यविमूढ़ सा खड़ा अब तक उस समाचार को ही पचाने का प्रयास कर रहा था। यों तो विलास को पहले ही आभास हो गया था पर कुछ बातें ऐसी होती हैं जिन्हें प्रामाणिक होते हम देखना नहीं चाहते, विलास के लिए यह बात बिल्कुल वैसी ही थी, अपने को सम्भालते हुए विलास ने उमा से पूछा “क्या हुआ था लक्ष्मी को और उसका बेटा पर्व वो कैसा है?” उमा ने सर हिलाते हुए बोला “ये नामुराद बीमारी भैया, बेचारी ग्यारह दिन अस्पताल में पड़ी रही और देखने वाला कोई नहीं, कोई अपनो की देखभाल भी कहाँ कर पा रहा है, इस बिपदा में कौन है किसी का भैया, उस बेचारी का वैसे भी अपना था ही कौन, उसका लड़का तो पिछले पंद्रह दिन से हमारे ही यहाँ है, मेरे छोटे लड़के के साथ उसका ख़ूब दिल लगता था पर अब रह-रह कर अपनी माँ को याद करता है, मैं समझा नहीं पाती भैया और छः साल के बच्चे को समझाऊँ भी कैसे” उमा ने अपने पल्लू के कोने से आँसू साफ़ किए और फिर बोली “इतना प्यारा बच्चा है मैं तो ख़ुद रख लेती पर पति की रेल हादसे में मौत के बाद दो बच्चों का ख़र्च ही नहीं उठा पाती इसे कैसे अपने पास रख लूँ, वैसे लक्ष्मी ने अपने आख़िरी फ़ोन पर मुझे कहा कि उसने आपसे इस बाबत बात की है और आप उसे लेजावे को आयंगे, उसे भी अंत तक पर्व की ही चिंता लगी रही, बेचारी ने बड़े चाव से इसका नाम पर्व रखा था, हर साल इसका जन्मदिन किसी त्योहार सा मनाती थी........उसकी अंतिम बात यही थी कि भाभी प्लीज़ पर्व को अनाथाश्रम मत भेजना, उसने पर्व के बाप से भी बात करने की कोशिश की पर जिस बाप ने अब तक उसकी सुध ना ली वो अब क्या आएगा” उमा ने मुँह बनाते हुए अपनी बात को विराम दिया, विलास जानता था कि वह पिता होने की न ही योग्यता रखता है और न उसे बच्चे का कोई मोह पर वह लक्ष्मी की अंतिम इच्छा का तिरस्कार नहीं कर सकता था। हम जीवन रूपी सागर की लहरों के विरुद्ध तैरकर ख़ुद को निपुण तैराक समझने की भूल करते है पर जब एक पल रुक कर देखते हैं तो ख़ुद को वहीं पाते हैं, जीवन कब सुनामी बन हमें पीछे धकेल दे क्या इसका बोध कोई तैराक लगा पाएगा। विलास के साथ भी यही सब तो हो रहा था जिन घटनाओं, चीज़ों और अवस्थाओं की उसने अपने लिए कल्पना भी न की थी वह सब एक-एक कर उसके जीवन का सत्य बनती जा रही थीं। विलास ने भरे गले से उत्तर देते हुए उमा से कहा “उमा जी आप बिल्कुल परेशान न हों, पर्व अब से मेरे साथ रहेगा। मैं जानता हूँ मैं एक बाप या उसकी माँ की तरह उसकी देखभाल नहीं कर सकता पर एक अच्छा दोस्त बन उसका ख़्याल रखने की मेरी पूरी कोशिश करूँगा शायद यही मेरी लक्ष्मी के प्रति श्रद्धांजली होगी, आप कृपया पर्व को ले आएँगी, मैं आज ही उसे यहाँ से दूर कानपुर अपने साथ ले जाऊँगा” विलास ने एक गहरी साँस ली और बोला आप “ये मेरा कार्ड रखिए, जब भी मन करे पर्व से मिलने या उसे देखने का तो चली आइएगा” उमा ने विलास का कार्ड हाथ में लिया और बोली “भैया मैं जानती हूँ आप यह इसलिए कह रहें हैं कि मैं आकर देख लूँ आप पर्व का कैसा ख़्याल रख रहे हैं पर मुझे लक्ष्मी पर विश्वास है और उसे आप पर था, जानती हूँ आप किसी और से उसकी परवरिश अच्छी करेंगे फिर भी आऊँगी ज़रूर पर्व और आपसे मिलने, आप ज़रा रुकिए मैं पर्व को ले कर आती हूँ” इतना कह उमा भीतर चली गयी और कुछ देर बाद एक छोटा बैग और पर्व को लेकर बाहर आयी। “बेटा तुम इन अंकल को जानते हो न, अब तुम इनके साथ रहोगे यह आपको घुमाने ले जाएँगे और मम्मी से भी मिलवाएगें” इतना बोल उमा मुँह पलटकर रो दी, पर्व ने विलास की ओर चमक भरी नज़र से देखा और बोला “विलास अंकल! मम्मी मुझे आपकी बहुत कहानियाँ सुनाती हैं, आप तो बहुत किताबें पढ़ते हो ना, मुझे पढ़ना अच्छा नहीं लगता पर कहानी सुनना पसंद है फिर भी मम्मी बोलती हैं पढ़ो लेकिन रात को मम्मी मुझे कहानी सुनाती है, आंटी को तो बस एक ही कहानी आती है, मम्मी कहती है आपने दुनिया में सबसे ज़्यादा किताबें पढ़ी हैं आपको तो सबसे ज़्यादा कहानियाँ आती होंगी?” विलास ने केवल दो शब्दों में बात को ख़त्म करना बेहतर समझा और बोला “हाँ बेटा, चलो अब चलते हैं” 


विलास एक प्राइवेट गाड़ी कर पर्व को अपने साथ कानपुर ले आया, रास्ते भर पर्व के लम्बे-लम्बे सवाल चलते रहे और विलास के वही चिरपरिचित एक-दो शब्द के उत्तर। पर्व को आभास था कि उसकी माँ जो उसे कभी अकेला नहीं छोड़ती अचानक इतने दिन कहाँ चली गयी, उसने कई बार यह प्रश्न विलास से किया पर संतोषजनक उत्तर ना पाकर पर्व एक बार उदास हो चेहरा लटकाते हुए बोला “मम्मी मुझे छोड़कर चली गयी ना, क्योंकि मैं अच्छा बच्चा नहीं हूँ, मुझे कोई पसंद नहीं करता सब छोड़कर चले जाते हैं” इतना सुनते ही विलास का पूरा जीवन उसकी आँखों के सामने आ गया आख़िर उसकी दशा भी पर्व से कुछ अलग न थी, कौन था उसका अपना जो उसके साथ रहा था और इसी अकेलेपन को ही तो विलास किताबों के साथ बाँटता चला आया था। विलास ने तुरंत पर्व का चेहरा अपनी हथेलियों में लिया और बोला “बेटा ऐसा कभी मत सोचना, तुम्हारी मम्मी हमेशा तुम्हारे साथ है, उनका प्यार बस पर्व के लिए ही तो है और अब तो मैं भी तुम्हारे साथ हूँ, तुम्हारा नया दोस्त” पर्व की झुकी हुई गर्दन उठी और उसने मुस्कुराते हुए विलास की ओर देखा। विलास जो हमेशा से जीवन को किताबों में खोजता आया था उसके लिए यह मुस्कान किसी नई आलौकिक अनुभूति जैसी थी। अभी कानपुर क़रीब तीन घंटा दूर था सो उसके बाद दोनो ने ख़ूब बातें की, विलास हैरान था कि वह अपने विषय या किताबों से हटकर भी इतनी बातें कर सकता था। विलास ने पर्व के बेतुके और बचकाने प्रश्नो के उत्तर अपने ज्ञान और अनुभव से देने की कोशिश की पर दोनो की सोच में तालमेल न होने के कारण उसे अक्सर उत्तर बीच में छोड़ बोलना पड़ता “तो तुम्हीं बताओ, मुझे तो नहीं आता”। कब रास्ता तय हुआ दोनो को पता नहीं चला और विलास विश्वविद्यालय से सटे अपने क्वार्टर के बाहर गाड़ी से सामान उतार ही रहा था कि पर्व ने सवालों की झड़ी फिर लगा दी “अंकल आप यहीं रहते हैं? वह सामने पार्क में मैं जा सकता हूँ? आप साथ चलेंगे मेरे साथ, बहुत मज़ा आएगा?” विलास ने मुस्कुरा कर कहा “हाँ, चलेंगे पर पहले अंदर चलो मुँह हाथ धोकर कुछ खा लो” और विलास ने जैसे ही दरवाज़ा खोला तो पर्व तुरंत बोल पड़ा “इत्ती सारी किताबें, अंकल आपका घर है या लाबरी?” विलास एक हाथ में ताला और दूजे हाथ में बैग लिए वहीं जमा सा खड़ा रहा, पर्व ने हुबहू अपनी माँ के अन्दाज़ में टिप्पणी की और विलास यादों के भँवर में फिर से जा घिरा, समय का पहिया पूरा चक्कर लगा विलास को वहीं वापिस खींच लाया था। “अंकल! क्या हुआ” पर्व ने विलास को यादों के अंधकूप से आवाज़ दे बाहर निकाला, विलास ने उत्तर दिया “कुछ नहीं, वैसे वह लाइब्रेरी होता है, लाबरी नहीं। तुम छः साल के तो हो तुमको लाइब्रेरी का कैसे पता?” पर्व ने अपने को ज्ञानवान दिखाते हुए कहा “मम्मी ने दिखाई थी वो लाबरी जहाँ आप जाते थे लेकिन बड़ी बोर जगह है सब बस पढ़ते रहते हैं और मम्मी कहती हैं आप रोज़ वहाँ जाते थे, आप बोर नहीं होते?” “नहीं बेटा मैं वहाँ बोर नहीं होता, वैसे और क्या बताया मम्मी ने मेरे बारे में?” इस बार विलास एक जिज्ञासु बालक की तरह सवाल करने लगा “अंकल बड़ी भूख लगी है कुछ खाने को दो ना” पर्व बोला, विलास तुरंत रसोई की ओर मुड़ा और बोला “सॉरी बेटा अभी कुछ बनाता हूँ, अंडा खाओगे?” पर्व ने उत्तर दिया “जी हाँ”। 


शाम सात बज चले थे नाश्ता कर लेने के बाद दोनो ने घंटो बातें की, अब तक विलास को पर्व की मासूम बातों का जवाब देना कुछ-कुछ आ गया था, अब उसे पर्व के बीच-बीच में माँ कहाँ है वाले प्रश्नो को संभालना भी आ गया था। विलास के लिए यह एक नई सीख थी और हैरानी उसे इस बात पर थी कि उसे इसमें आनंद आने लगा था। रात का खाना खाने के बाद पर्व ने विलास से कहा “मुझे कहानी सुनाओ ना अंकल, आपके पास इतनी सारी किताबें हैं, कोई भी कहानी वाली किताब नहीं है”। बस फिर क्या था विलास किताबों के ढेर में कोई ऐसी किताब ढूँढने लगा जो पर्व के मतलब की हो, वैसे विलास हमेशा किताबों को क्रम से ही लगा कर रखता था पर उसे ज्ञात नहीं कि कोई बच्चों के मतलब की पुस्तक भी उसके पास होगी। बहुत ढूँढने के बाद विलास को कुछ याद आया वह तुरंत पीछे वाले स्टोर में गया और एक छोटा संदूक ले आया, यह संदूक उसके बचपन के दिनो की कुछ भूली-बिसरी यादों का था। उसने तुरंत उसे खोला और एक पुस्तक निकाल कर संदूक वापिस रख आया। यह उसके बचपन की शायद पहली वह किताब थी जो पढ़ाई के विषयों से इत्तर थी और बहुत सी नन्ही कहानियों से भरी थी। विलास ने अभी पहली कहानी पढ़ना शुरू ही किया था तो पाया कि पर्व गहरी नींद में सो चुका था, विलास मुस्कुराता हुआ किताब हाथ में लिए सोचने लगा यह बच्चा जिसे वह सरदर्द समझता था कुछ ही घंटो में उसकी ख़ुशी का कारण बन जाएगा और उसी मुस्कान के साथ विलास पर्व के बग़ल में न जाने कब सो गया। 


अगले दिन से विलास का जीवन एक नई व्यस्तता में प्रवेश कर गया, वह सुबह ख़ुद नहा पर्व को नहलाया तत्पश्चात पर्व की पसंद का नाश्ता बनाता फिर उसके साथ बैठ घंटों उससे बातें भी करता और साथ उसे कुछ पढ़ाने का प्रयास भी, दोपहर दोनो खाना खा शाम को घूमने पार्क जाते, पर्व झूलों का आनंद लेता और विलास उसे देख कर, रात खाने के बाद विलास पर्व को कहानी सुनाता, कई बार अपनी बचपन की उसी किताब से और कई बार लाइब्रेरी से लायी कुछ और किताबों से। बस इसी प्रकार तीन महीने बीत गए, विश्वविद्यालय अब कोरोना लॉकडाउन के बाद परीक्षा की तैयारी करने जा रहा था और सभी प्राध्यापकों को अब विश्वविद्यालय आना ही होगा ऐसा संदेश जारी किया गया था। विलास को पर्व की चिंता थी सो वह लाइब्रेरियन शर्मा जी के पास गया और उनसे पूरी बात साँझा की। शर्मा जी ने तुरंत हल निकालते हुए कहा “मेरे घर काम करने वाली सीता से मैं बात करता हूँ यदि वह दिन में कुछ नहीं कर रही तो जब तक तुम घर न पहुँच जाओ वह पर्व की देखरेख कर लेगी, भली औरत है मैं पिछले दस साल से उसे जानता हूँ, तुम निश्चिन्त रहो सब ठीक होगा।” विलास की चिंता थोड़ी दूर हुई और बोला “थैंक्यू शर्मा जी आपका बड़ा एहसान होगा” “भाई इसमें एहसान जैसी क्या बात है, चलो मैं चलता हूँ और कल ही तुम्हारा यह काम करवाता हूँ”।


अब से रोज़ सीता सुबह से दोपहर बाद तक पर्व का ध्यान रखती और विलास के आने के बाद अपने दूसरे कामों पर चल देती। रोज़ की तरह विलास काम ख़त्म कर तेज़ी से घर की ओर जा रहा था और लाइब्रेरी के सामने से ज्यों ही गुज़रा तो शर्मा जी ने पुकारा “विलास! अरे भई छः महीने हो गए तुम तो मालूम होता है लाइब्रेरी का रास्ता ही भूल गए हो” विलास ने पलटकर उत्तर दिया “माफ़ कीजिए शर्मा जी पर आप तो सब समझते हैं आज कल मुझे घर जाने की थोड़ी जल्दी रहती है, आऊँगा जल्द आपसे मिलने” कहकर विलास फिर तेज़ चाल से विश्वविद्यालय के गेट की ओर चल दिया। घर पहुँचकर विलास ने देखा एक दिल्ली नम्बर की गाड़ी उसके दरवाज़े के सामने खड़ी थी, नम्बर प्लेट से मालूम होता था कि टैक्सी थी। विलास तुरंत घर के भीतर दाख़िल हुआ और रोज़ की तरह उसके आते ही सीता अपने दूसरे काम पर चल दी। विलास ने देखा सामने कुर्सी पर सूट में एक आदमी बैठा है उसे देख वह थोड़ा हैरान हुआ और बोला “जी क्या हम एक दूसरे को जानते हैं?” वह आदमी तुरंत कुर्सी से उठा और विलास की ओर हाथ बढ़ाकर बोला “हाय! मैं अमन हूँ.....लक्ष्मी का पति और पर्व का फ़ादर, थैंक्यू सो मच जो आपने इस मुश्किल टाइम में मेरे बेटे को अपने पास रखा, मैं उसे लेने आया हूँ” सुनकर विलास के पैरों तले मानो ज़मीन खिसक गयी और वह निशब्द अमन को देखता खड़ा रहा, अमन ने आगे बोलना शुरू किया “पहले आना चाहता था पर सभी फ़्लाइट बंद थीं और पर्व का कुछ क्लू भी नहीं था फिर मैं उमा जी से मिला तो उनसे आपका पता चला, मैं दो दिन के बाद ही अमेरिका जा रहा हूँ सो आज ही दिल्ली के लिए निकलना होगा, इनफ़ैक्ट जब लास्ट टाइम मैं इंडिया आया था तब पर्व का पासपोर्ट और वीज़ा का काम करवा कर गया था, सोचा नहीं था इतनी जल्दी इसकी ज़रूरत पड़ेगी, ये देखिए” और अमन ने जेब से पासपोर्ट निकाल कर विलास को दिखाया “लक्ष्मी ने आपको बताया होगा, शी न्यू आल दिस.....मुझे बड़ा दुःख हुआ था लक्ष्मी का सुनकर काश मैं कुछ कर पाता” अमन बोलता रहा और विलास अब भी चुप और बेजान सा खड़ा रहा, अमन ने फिर से बोलना शुरू किया “तो अब हमें चलना चाहिए, वैसे भी अभी बहुत काम पेंडिंग हैं दिल्ली में भी” विलास ने कहा “जी हाँ, पर्व आपका बेटा है लक्ष्मी के बाद पहला अधिकार आपका ही बनता है, बड़ा प्यारा बच्चा है इसका ध्यान रखिएगा” अमन ने मुस्कुराते हुए हाँ में सर हिलाया और पर्व को देखकर बोला “चलो बेटा! गेट रेडी” “नहीं मैं अंकल के साथ रहूँगा मुझे नहीं जाना आपके साथ” पर्व ने चिड़चिड़े स्वर में बोला, इससे पहले अमन कुछ कहता विलास बोला “नहीं बेटा ऐसे नहीं बोलते, पापा और मैं हम दोनो चाहते हैं आप उनके साथ जाओ और ख़ूब अच्छे बनकर दिखाओ, अंकल की बात मानोगे ना, मेरा अच्छा बेटा” विलास ने सर पर हाथ फिराया और पर्व के माथे को चूमा। अमन अब पर्व का हाथ पकड़ उसे साथ ले जाने लगा और विलास शालीनता का प्रतिबिम्ब बना दोनों को जाते देखता रहा।


विलास आज अपने को बड़ा कमज़ोर महसूस कर रहा था, उसे बचपन से कभी समझ ही नहीं आया कि किस समय कैसी अभिव्यक्ति होनी चाहिए। वह कभी खुलकर न हँस पाया था और न कभी रो सका था। शांत रहना और न बोल पाना उसकी स्वाभाविक और एकमात्र मुखाकृति बन कर रह गयी थी, उससे हर वह चीज़ जिसे कभी उसने चाहा था धीरे-धीरे दूर हो गयी और वह न उसे पुकार पाया और न ही अफ़सोस कर सका। किताबों के बीच रहते-रहते वह ख़ुद आज एक किताब बना खड़ा था पर उसे पढ़ने वाला कोई नहीं है। अमन और पर्व के जाने के बाद वह उसी कुर्सी पर बैठा ख़ुद अपने जीवन की किताब का हर पन्ना उलट-पलट कर पढ़ता रहा अब उसके पास थी तो बस यादें जिन्हें समेट उसे फिर उसी पुराने संदूक में डालना था जिसे ख़ुद भी वह खोलने से डरता था। हाथ में वही कहानियों की पुस्तक लिए पूरी रात विलास ने उसी कुर्सी पर बिता दी, सुबह सीता आयी और उसे जगाया बोली “भैया जी आज मेरी बेटी का जन्मदिन है, अगर आप आज यूनिवर्सिटी नहीं जा रहे तो मैं आज की छुट्टी ले लूँ?” 

विलास ने गहरी साँस लेते हुए बोला “हाँ, ठीक है जाओ” सीता पलटकर जाने लगी तो विलास ने उसे पुकारा “सीता! तुम्हारी बेटी कितने साल की हो गयी आज” “जी पूरे आठ बरस की हो गयी मेरी मीना” सीता ने उत्तर दिया, विलास कुर्सी से उठा और सीता की ओर क़दम बड़ा बोला “मेरी शुभकामनाएँ तुम्हारी बिटिया के साथ हैं और यह मेरी तरफ़ से उसके लिए एक भेंट” विलास ने वही कहानियों की किताब सीता के हाथ पर रख दी जिससे वह पर्व को कहानियाँ पढ़कर सुनाता था, सीता ने किताब को एक नज़र देखा, उस पर एक मुस्कुराते हाथी का चित्र बना था और उसकी सवारी एक चूहा कर रहा था, किताब का नाम था अनमोल साथी। 


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