अनमोल साथी (भाग 1)
अनमोल साथी (भाग 1)
विलास अनाथाश्रम में पलकर बड़ा हुआ था।अपने पढ़ने के शोंक के कारण वह पढ़ाई में अव्वल और दोस्त बनाने के मामले में पीछे था।विलास का कोई दोस्त नहीं था उसका कारण शायद उसकी अलग सोच और हमेशा किताबों में व्यस्तता थी।वह अक्सर विद्यालय के बच्चों को अपने नाम को लेकर मायूस देख हैरान होता था, विलास को स्वयं ज्ञात नहीं कि उसको यह नाम किसने दिया था पर उसे शिकायत नहीं थी क्योंकि दूसरों की तरह वह अपने नाम को नापसंद नहीं करता था, आख़िर यही तो उसकी एक मात्र पहचान थी।जात पात और धर्म का जीवन में अभाव ही था कि विलास की दिलचस्पी सभी धर्मों में थी और किसी ख़ास के प्रति कोई आसक्ति नहीं थी।वह अक्सर अपने आस-पास के लोगों को जात-पात की बहस में पड़ा देख हैरान भी होता और मन ही मन परेशान भी।विलास बिहार के एक छोटे शहर मुंगेर के अनाथालय में पलकर बड़ा हुआ था।मुंगेर में ही पहले विद्यालय और फिर यूनिवर्सिटी से एम.ए की पढ़ाई करने के बाद दर्शन शास्त्र में पीएचडी करने के लिए वह पटना आकर रहने लगा था और वहीं एक लाईब्रेरी में नौकरी भी करने लगा था, यही एक कार्य था जो उसका शोंक और पढ़ाई का ख़र्च दोनो एक साथ पूरा कर सकता था।अपने पढ़ने के शोंक के कारण हिन्दी और अंग्रेज़ी भाषाओं पर उसने अच्छी पकड़ बना ली थी और भारतीय दर्शन शास्त्र पर तो उसने हर वह पुस्तक पढ़ डाली जो उसके हाथ लगी।दर्शन शास्त्र उसके लिए मानो पढ़ाई न रहकर जीवन का अंग हो गया था।बचपन में उसने किसी पुस्तक में एक महान राजनीतिज्ञ की बात पढ़ी थी “मैं जिस दिन किसी किताब का एक पन्ना भी ना पढ़ पाऊँ मुझे लगता है मेरे जीवन का वह दिन बेकार हो गया” विलास के कानो में बहुत समय तक यह बात गूँजती रही और न जाने कब उस पंक्ति के साथ विलास ने जीना शुरू कर दिया।विलास की दिनचर्या साधारण और आमूमन एक सी थी परंतु उसमें ज्ञान का विशेष स्थान था वह सुबह उठकर नियमानुसार योग कर लाईब्रेरी के लिए चल देता, पूरा दिन वहीं बिताने के बाद साँझ को वह गांधी मैदान की सैर अवश्य करता था।विलास के जीवन में शब्द मुख्यतः लिखित ही थे कई बार तो कई दिन तक उसने शायद किसी से कोई बात तक नहीं की,पूरा दिन लाईब्रेरी की शांति और लाईब्रेरी के समान घर, जिसमें घर का सामान तो गिना जा सकता था पर पुस्तकों को गिनना कठिन था।लोगों का शोरगुल उसे बिलकुल पसंद नहीं था।जितनी ज़रूरत हो उतना बोलना और यदि ज़रूरत न हो तो चुप रहना विलास का स्वभाव था।कोई साथी या मित्र का अभाव विलास को कभी परेशान नहीं करता था, उसकी पुस्तकें ही उसकी मित्र भी थीं और परिवार भी।
इन सब के इलावा कोई तो था जिसे वह अपने साथी के रूप में देखना चाहता था।विलास अपने मुंगेर के दिनो में ही एम.ए की एक सहपाठी लक्ष्मी को मन ही मन चाहने लगा था पर अपने शांत और सलज्ज स्वभाव के कारण कभी कुछ कह नहीं पाया।लक्ष्मी भी विलास की ही तरह अनाथ थी और पढ़ने में विशेष रूचि के कारण दोनो के बहुत से शोंक भी एक से थे।दोनो की मुलाक़ात अक्सर लाईब्रेरी में ही हुआ करती थी।विलास ने कई बार लक्ष्मी से अपने दिल की बात करनी चाही पर कभी बोल नहीं पाया हालाँकि लक्ष्मी एक मात्र थी जिससे उसे बात करने का मन करता था पर पुस्तकों और कुछ छोटे सवालों के अलावा कभी बात आगे बढ़ी ही नहीं।विलास को हमेशा यह लगता था कि वह किसी भरे-पूरे परिवार का कभी हिस्सा नहीं बन सकता और उसे लक्ष्मी जैसा ही कोई अच्छे से समझ सकता है।वह अपने नाम के आगे डॉक्टर लगा एक अच्छी नौकरी प्राप्त कर वापिस मुंगेर जाना चाहता था और लक्ष्मी से वह बात जिसे उसने कभी कहा नहीं, कहना चाहता था, पर वह जानता था कि अभी उसमें समय है।
एक दिन विलास लाईब्रेरी के काउंटर के पीछे बैठा हर रोज़ की तरह किताब पढ़ रहा था, समय दोपहर बाद का था इसलिए कुछ ही लोग लाईब्रेरी में उपस्थित थे, अचानक एक हल्की सी आवाज़ बिलकुल विलास के क़रीब से आयी “जी सुनिए” विलास ने सर उठा कर देखा तो मानो उसकी ख़ुशी का ठिकाना न रहा, उसके सामने लक्ष्मी बदले हुए से रूप में खड़ी थी, साँवले रंग की लक्ष्मी पर सादगी से बंधी साड़ी ख़ूब फब रही थी, शालीनता ऐसी निखर कर आ रही थी की जिसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता था, चेहरे पर एक तरफ़ से निकली लट गालों को स्पर्श कर जैसे उसके कानो में कुछ कह रही हो।विलास एकदम खड़े होकर तेज़ आवाज़ में बोला “लक्ष्मी तुम” विलास की इतनी तेज़ आवाज़ आजतक किसी ने नहीं सुनी थी, लाईब्रेरी में सभी काउंटर की ओर देखने लगे, विलास ने अपनी भावनाओं को समेटा और इस बार धीरे से बोला “लक्ष्मी तुम यहाँ कैसे”।लक्ष्मी भी विलास को देख हैरान थी उसने हमेशा विलास को लाईब्रेरी में ही देखा था पर उम्मीद नहीं की थी कि वह यहाँ इस लाईब्रेरी में भी विलास को पाएगी।लक्ष्मी धीरे से बोली “मैं आजकल पटना में ही हूँ बहुत समय से सोच रही थी कि लाईब्रेरी की मेम्बर्शिप लूँ, सो आज इसी काम के लिए आयी हूँ, कहीं बाहर चलकर बात करें?” लक्ष्मी ने इधर उधर नज़र घुमाते हुए कहा “हाँ बिलकुल, चाय पियोगी?” विलास तुरंत बोला।लक्ष्मी ने हाँ में सर हिला दिया और दोनो लाईब्रेरी से बाहर चल पड़े।
बग़ल की चाय की दुकान के सामने दोनो हाथ में चाय का गिलास पकड़े खड़े थे तभी लक्ष्मी ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा “और तुम बताओ यहाँ कैसे, पटना कब चले आए बताया भी नहीं” विलास ने उत्तर दिया “बताना चाहता था पर एम.ए के बाद हम मिल नहीं पाए।पीएचडी कर रहा हूँ तो पटना ही आकर रहने लगा, तीन साल बीत गए अब तो यहीं का होकर रह गया हूँ, सोचा तुम्हें फ़ोन करूँ पर तुमने कभी नम्बर ही नहीं दिया” “तुमने कभी माँगा ही नहीं” लक्ष्मी ने हँसते हुए तबाक़ से उत्तर दिया, विलास ने नज़र नीचे कर शर्माते हुए कहा “हाँ ये भी है, अच्छा तुम बताओ तुम यहाँ पटना कैसे और आजकल क्या कर रही हो” यह प्रश्न सुन लक्ष्मी के चेहरे के भाव बदल गए, इस प्रश्न से वह बचना चाहती थी पर उत्तर तो देना होगा और झिझकते हुए बोली “तीन साल पहले मेरी शादी हो गयी थी” अब समय था विलास के चेहरे के भाव के बदलने का, लक्ष्मी थोड़ा रुकी फिर बोलना शुरू किया “तुम तो जानते ही हो मुझे परिवार का कितना चाव था अपना एक छोटा सा परिवार मेरा हमेशा से सपना था, माँ जैसी सास, मुझे समझने वाला पति और एक घर जिसे मैं अपना कह सकूँ पर विलास क़िस्मत को हम जैसो पर रहम ही कब आया है।सास ने मुझे पहले दिन से ही स्वीकार नहीं किया और पति का प्यार दो साल तक भी नहीं टिका फिर समझ आया वह प्यार नहीं केवल उपकार था जो उन्होंने एक अनाथ पर किया था पर उपकार का बोझ न वो उठा पा रहे थे और न मैं फिर एक दिन उन्हें अमेरिका में नौकरी की पेशकश हुई तो मिस्टर तलाक़ देकर अमेरिका जा बसे, अब तो बस मेरा दो साल का बेटा है जो मेरे जीने का सहारा है नहीं तो मैं कब की मर गयी होती” लक्ष्मी की आँख से आँसू की एक बूँद बह गाल पर आ गयी। विलास को ऐसी स्थितियों को सम्भालने का अनुभव नहीं था।वह सोच रहा था क्या कहना चाहिए और क्या नहीं पर फिर विलास ने कुछ न कहना ही उचित समझा और लक्ष्मी के हाथ पर अपना हाथ रख दिया।यह पहली बार था कि विलास ने लक्ष्मी के हाथ को छुआ था। दोनो कुछ पल आँखो में आँखे डाल एक दूसरे को देखते रहे।