अकेला था मैं
अकेला था मैं
"मेरे मन के किसी कोने में अतृप्त आकांक्षाओं की वैश्या बुरी तरह खांस रही है" ना जाने कब कहां पढ़ी थी यह पंक्तियाँ। बीते कई सालों से कभी ना कभी यह पंक्तियाँ जहन में आ ही जाती है। ऐसा लगता है जैसे कि मेरे अपने मन की परतों को खोल रही हो।
जिम्मेदारियों का बोझ उठाते -उठाते उम्र की इस दहलीज पर अतीत के पन्ने पलटता हुआ सोचता हूं कि कहां से चला था।
यह कारवां कहां जाना है मालूम नहीं। जो भी कुछ लक्ष्य बनाए थे पूरे किए कठोर परिश्रम और दृढ़ इच्छाशक्ति से।
" छोटू गमलों में पानी, कपड़ों को इस्त्री करके, बाजार से सामान लाकर, खाना खा लेना किचन में रखा है। जल्दी से पैसे ले लो "- जी मालकिन कहकर मैं चला गया। रोज मालकिन के पढ़ाते समय सब काम निपटा कर पढ़ने के लिए आ जाता था। उनके बच्चों की पुरानी किताबों की मदद से पढ़ लेता था। मालकिन पर मुझे कुछ नहीं कहती पढ़ा दिया करती थी कुशाग्र बुद्धि का था जो एक बार पढ़ लेता था वह याद हो जाता था। कई बार तो उनके बच्चों का होमवर्क भी कर दिया करता था। स्कूल में बच्चों को भी बहुत शाबाशी मिलती। वह घर आकर माँ से कहते कि तो माँ भी खुश होती और जो बच्चों को पढ़ाती है मुझे भी पढ़ा दिया करती थी। कुशाग्र बुद्धि का था जो एक बार पढ़ लेता था वह याद हो जाता था। घर के सारे काम के साथ-साथ मुझे उन्होंने मुझे प्राइवेट परीक्षाएं भी दिलवाई मैंने दसवीं की परीक्षा दे दी परिणाम आया तो मुझे 98% अंक प्राप्त हुए मालिक और मालकिन बहुत खुश हुए उनके बच्चों को सिर्फ 75% ही मिले थे वह भी बड़ी मुश्किल से।
मालिक के रिश्तेदार के वहां पहले पिता जी ड्राइवर हुआ करते थे। माँ बचपन से ही नहीं थी पिताजी भी किसी गंभीर दौरान बीमारी के दौरान चल बसे मैं अकेला था। मालिक एक दिन अपने रिश्तेदार के घर आए और उन्होंने मुझे देखा और कहा चलो हमारे साथ। घर का छोटा मोटा काम कर लेना हम तुम्हें पढ़ा देंगे। मुझे पढ़ाई का बड़ा शौक था बचपन से ही पढ़ने में बहुत तेज़ था। मैं घर के काम के साथ-साथ खाली अब खाली समय में ट्यूशन देने लगा और मालिक का भी भरपूर साथ था। वह मुझे अपना दाहिना हाथ कहते थे। मैं भी उन्हें अपने माता पिता की तरह समझता था उनकी छत्रछाया में रहकर जवान हुआ था मालिक मालकिन बहुत अच्छे थे। उन्होंने मुझे अपने पास रख लिया वह मुझे प्यार से छोटू कहकर बुलाते थे।
अब मालिक मालकिन रहे नहीं बच्चे भी विदेश में बस गए है। मुझ अनाथ को उन्होंने इस काबिल बनाया। कहते हैं ना डूबते को तिनके का सहारा। आज मैं शहर के प्रतिष्ठित कॉलेज में प्रोफेसर हूं। विवाह हुए भी काफी अरसा हो चुका है दो बच्चे हैं आज मेरा पूरा परिवार है कभी अनाथ
"अकेला था मैं"