अधूरी इच्छा
अधूरी इच्छा
"बेटा नमिश , मैं तुम्हें आज कुछ बताना चाहता हूँ".. रामसरूप जी अपने बेटे से मन में चल रही बातें बताना चाहते थे जो कितने दिनों से नहीं कह पा रहे थे।
"हाँ, बोलिये न पिताजी बात क्या है? ..” नमिश ने टीवी बंद करते हुए कहा।
"मुझे कहीं दूर क्यों नहीं छोड़ आते अब? तुमने मेरी सारी इच्छाएँ पूरी कर दी तो यह आखिरी इच्छा भी पूरी कर दे.. " कहते हुए झिझक रहे थे ।
"आपको तो कहा था न कि आप तीर्थयात्रा कर आओ, जिससे आपका मन बहल जाएगा। जब आपको लगे कि घर बैठे- बैठे मन ऊब चुका तो किसी दिन घूम आया करो, यह आपका हक हैं तो मुझसे पूछने की क्या बात?" .. नमिश अपने पिताजी को बार - बार कहता पर रामसरूप अपनी ही बात आगे करते।
नमिश भी कैसे अपने पिताजी की यह बात मान लें। उसका भी तो यह कर्तव्य है कि इस अवस्था में अपने पिताजी की सेवा करें। अपनी माँ को तो वह पहले ही खो चुका है अब अपने पिता को नहीं छोड़ सकता। लेकिन पिताजी का भी तो अपना मन और इच्छा है उसका क्या? कहते हैं बुढ़ापे में लोग बच्चों जैसी हठ करते है लेकिन पिता की छत्रछाया में रहकर बच्चे स्वयं को सुरक्षित महसूस करते है। नमिश बड़ी दुविधा में था कि इस समय क्या किया जा सकता है जिससे कि पिता की बात भी बनीं रहे और खुद की भी।
"क्या सोच में पड़ जाते हो बार - बार मैं अपना ख्याल खुद रख सकता हूँ और मुझे वनगमन करने कोई रोक नहीं सकता, तुम भी नहीं".. रामसरूप ने एकदम से फटकार लगाई।
"पापा, आप समझने का प्रयास करो यह आजकल संभव नहीं। आप किस जमाने की बात करते हो, उस जमाने की जहाँ पर लोग द्वार पर आए भिक्षुक को भी साधु की उपाधि देते थे। आज किसी अनजान को कुछ नहीं देते।
तुम न मानोगे, अब मैं ही कुछ करता हूँ.. रामसरूप बहस कर थक गए।
स्वाती अब पापा को तुम ही समझाओ.. " नमिश ने अपनी पत्नी को आवाज दी।
"मैं उन्हें क्या समझाऊँ जी, आप जैसे काम से बाहर निकलते हैं तो बस यही रट लगाये रहते हैं। यह सब समझते हुए कि जमाना बदल चुका है पर नहीं इन्हें तो बस अपनी ही बात पर अड़े रहना है"हैं.. स्वाती ने कड़े शब्दों में कहा।
स्वाती भी थक चुकी थी उनके पुराने खयाल सुन - सुनकर। कितनी बार समझाने की कोशिश की है लेकिन सब बेकार। नमिश और स्वाती दोनों अपने- अपने काम में लग गए। बेकार की बहस वो नहीं करना चाहते थे। लोग अपने बेटों से दूर रहकर रो रहे हैं और यह महाशय दूर होने के लिए।
वनगमन की यह इच्छा ना रामसरूप के लिए अच्छी है ना नमिश के लिए उसे पूरी करना। कहते हैं कि पुराने समय आश्रम व्यवस्था बनायी गई जिसके तहत २५-२५ वर्षों के नुसार व्यक्ति को अपना जीवन यापन करना होता था। पहले २५ साल ब्रम्हचर्य, दूसरे २५ साल गृहस्थ जीवन तथा अगले २५ -२५ साल वानप्रस्थ और संन्यासाश्रम। इस नीति के अनुसार रामसरूप जीना चाहते है, परंतु वह ये भूल गए हैं कि इन नियमों में समयानुसार परिवर्तन होते गए है। आज उस नियम के तहत लोगों को सारे मोह को छोड़ना ही बेहतर है। यह मोह त्याग तो वह अपनी बिवी के मरने से पहले ही कर चुके किंतु उनके मन में चली आ रही अभिलाषा थम नहीं रही थी। वे अधिक चिड़चिड़े हो गए।
आखिरकार नमिश अपनी पिता की अवहेलना न कर सका और उन्हें सबकुछ यही छोड़कर भेज दिया। नमिश और स्वाती बहुत दुखी थे उनके जाते वक्त। एक हंसता - खेलता परिवार आज नम था।