STORYMIRROR

MANTHAN DEORE

Drama Tragedy Inspirational

4  

MANTHAN DEORE

Drama Tragedy Inspirational

जीवन के इस मोड़ पर

जीवन के इस मोड़ पर

34 mins
328


सुनैना, ओ सुनैना जल्दी चलो। बाहर विरेन गाड़ी लेकर खड़ा है.. देवयानी ने सुनैना को जल्द से जल्द तैयार होने के लिए कहा। 

हा, आयी बाबा कितनी जल्दबाजी करती हो हमेशा.. मुंह पर पावडर लगाकर वह उसके सामने खड़ी हो गई। 

हा, हा, आज तो तुम सबको निढाल कर दोगी। बहुत खूबसूरत लग रही हो इस लाल रंग की साड़ी पर और तो और मॅंचिंग चुड़ियाँ भी, हाय मैं तो मर जाऊँ इस चेहरे पर.. देवयानी ने शरारती अंदाज से सुनैना की तारीफ करते हुए कहा। 

तुम भी न बहना, हमेशा यही कहती हो वैसे आज तुम भी कम सुंदर नहीं दिख रही.. उसी अंदाज में सुनैना ने भी अपनी बहन को छेड़ा। 

अब, चलो भी वह हमें छोड़कर चला जाएगा वैसे भी उसे इंतजार करने की आदत नहीं.. कहते हुए वह दोनों बाहर आकर विरेन की गाड़ी में बैठकर हाॅटेल की ओर निकल पड़े। 


विरेन और देवयानी दोनों ही अगले दो महीनों में शादी करने वाले है। दोनों एक ही विश्वविद्यालय के छात्र रह चुके है, जहाँ पर उनके बीच प्रेमसंबंध बंधने लगे। उनके बीच पहले साल से ही इतनी घनिष्ठता हो गई , कि वह एक- दूसरे के बिना जी नहीं सकते थे। हमेशा एक- दूसरे के साथ रहते हुए उन्हें जो स्वर्णिम आनंद की प्राप्ति होती वह कहीं दूसरी ओर नहीं होती। एक- दूसरे की मजबूती और कमीयों को वह भलीभाँति जानते है, जब उनके बीच के प्रेम संबंध अधिक तीव्र हो चले थे तो उन्होंने दि महाराज इस होटल में मिलने का वादा किया और एक ही समय पर दोनों ने एक दूसरे को इजहार किया। उनका प्यार और विश्वास सच्चा था, जिसके कारण उन दोनों ने अपने घरवालों से बेखौफ होकर रिश्ते की बात करी। उनके प्यार को सर्वसम्मति मिलते ही दोनों का रिश्ता तय हो गया। 


उन दोनों को देखकर सुनैना हमेशा सोचती कि कितना गहरा प्रेम है उन दोनों के बीच, ऐसा भाग्य हर किसी के पास नहीं रहता। वह भी आज अपने प्रेमी को मिलने के लिए ही जा रही थी, उसे भय था कि क्या होगा? और क्षितिज का क्या रिएक्शन होगा? यही सोच सोचकर सुनैना स्वयं के दांत चबाने लगी। 


आखिर वह घड़ी आ ही गयी। टेबल पर बैठा क्षितिज मेरी ही राह देख रहा था। किसे मालूम था कि ये उसका चूमना मेरे लिए आखिरी एहसास होने वाला था इस प्रेम कहानी को जो मैं सुनहरे अक्षरों में कैद कर रखना चाहती थी। उसका ये कहना कि मैं अब तुम्हें कभी मिल नहीं सकता, भला कैसे मैं उसके ये बोल सह सकती थी? 

मैं भयभीत हो गई भविष्य की चिंता में, मन किया की दो - चार थप्पड़ लगा दूॅं लेकिन स्वयं को शांत रखा और कहने लगी, ये तुम कैसे कर सकते हो? मैंने तो तुम्हें अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया, इतना ही नहीं बल्कि मैं खुद को तुम्हारे साथ हर क्षण देखती हूँ नहीं तुम मुझे इस प्रकार नहीं छोड़ सकते? 

तुम समझने की कोशिश करो सुनैना, मैं तो तुम्हें चाहता हूँ पर हमारा साथ किसी के लिए पीड़ा दे रहा है, जिसकी वेदना को मैं कभी देख नहीं सकता ना सह सकता हूँ। 

आखिर किसके लिए तुमने यह निर्णय लिया है? कौन है वो शख्स? .. मेरे इस सवाल के जवाब में उसने चुप्पी साध ली। 

क्षितिज मेरी नजरों के सामने मुझसे दूर चला जा रहा था और मैं उसे अवाक् होकर एकटक ऑंसू बहाती निहारने लगी। उसके जाते ही दिदी और जिजू मेरे पास आकर बैठ गए, मुझे ऐसी हालत में देखकर वह अचंभित थे कि इस तरह क्यों रो रही है। मेरा रो - रोकर बुरा हाल हो रहा था, तभी दी ने मेरी पीठ सहलाते हुए प्यार से पूछा, क्या हुआ सुनैना? ऐसी क्या बात है जो तुम लगातार रोये जा रही हो? 

मैंने जोर से कहा कि वो मुझे छोड़कर चला गया, उसके बाद कुछ बोल न सकी और गाड़ी में बैठकर सीधे घर पर आ गयी। 


देखो विरेन देखते हो, क्या हालत बना ली है उसने.. कमरे से बाहर निकलकर देवयानी ने विरेन से सुनैना के बारे में कहा। 


विरेन भी समझ रहा था उसका दर्द, लड़की के लिए बहुत असहाय हो जाता है प्यार का न मिलना और सुनैना जैसी लड़की के लिए तो यह काफी भयावह है। वह उसे बरसों से जानता है, काफी खुद्दार लड़की है वह, निर्भीक और निडर। जो आज उसे चोट लगी थी न उससे तो कोई भी हिल सकता था। उसके मन में एक ही चिंता सता रही थी कि आखिर कैसे उस लड़के ने सुनैना का हाथ छोड़ दिया। 


मैं समझ सकता हूँ, देवयानी उसका दर्द आखिर कौन सह सकता है कि अपना प्यार जिसके साथ पूरा जीवन समर्पित करने का ख्वाब देखा ,वही आज छोड़ जाता है.. विरेन के कहने में दर्द भरा हुआ था। 

मैं तो कहता हूँ कि सुनैना की शादी कर दो.. विरेन ने जल्दी से कहा। 

क्या तुम पगला गए हो, इस हालत में कोई ऐसा फैसला कैसे ले सकता है? .. अप्रत्याशित बात सुनकर देवयानी ने चौंकते हुए सवाल किया। 

देखो, यहाँ बैठो, मैं तुम्हें समझाता हूँ.. कहते हुए देवयानी के कंधे पर हाथ रखते हुए विरेन ने देवयानी को सोफे पर बैठाया। वे कहने लगा, सुनैना का सपना था न वह तुम्हारे साथ एक ही मंडप में शादी करें। वैसे भी उसे अकेले रहना मतलब उसके लिए मुश्किलें और बढ़ाना। एक बार जब उसकी शादी हो गयी तो वह सबकुछ भूल जायेगी। उसे भूलना होगा यह सब नहीं तो घुटन- से रोज तिल- तिल मरती रहेगी बेचारी। जब एक बार उसकी शादी हो गई तो वह खुद को वक्त के साथ- साथ संभाल लेगी। जब हमारी शादी के बाद तुम उसके साथ यहाँ रहोगी नहीं तो वह क्यों किसीसे अपने मन की बात खुलकर कहेगी। उसे कौन समझेगा? तुम्हें अगर ऐसा लग रहा है कि वो अपने मन की बात अपनी माँ से कहेगी तो गलत सोचती हो तुम। अपना दर्द वह घरवालों को बताकर क्यों उन्हें तकलीफ देंगी? सोचो देवयानी, अगर उसे पति का साथ और प्यार मिलता रहा तो अतित में खो गए पन्ने की तरह वह आज का दिन मिटा देगी। समझ रही हो न मेरी बातें.. झकझोरते हुए देवयानी से विरेन ने कहा। 


देवयानी शून्य से उसकी तरफ देखने लगी। उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या कहे? जो भी बातें विरेन ने कही थी, वे उसे सच लग रही थी। जिस ख्वाब को पूरे करने की चाहत में कदम उठाया जाये और वह पूरा न हो तो उसे बिल्कुल अकेला नहीं छोड़ना चाहिए, इस विचार से वह पूरी तरह सहमत थी। 


लेकिन कौन करेगा इससे शादी वह भी इतनी जल्दी? .. देवयानी ने कहा। 

तुम चिंता ना करो, बस तुम्हें मेरा साथ देना होगा.. विरेन ने उसके हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा। 


रात काफी हो चुकी थी तो विरेन अपने घर चला गया। सुनैना ने रो - रो कर बुरा हाल कर लिया था, अपनी बहन की ममतामयी थपकियों से उसे गहरी नींद आ गयी। सुनैना तो जैसे- तैसे सो गयी परंतु देवयानी अभी भी चिंतित थी सुनैना के भविष्य के लिए। उसका मन सवाल करता और वह निरूत्तर हो जाती क्योंकि विरेन ने जो सच्चाई दिखाई थी वह मन के प्रश्नों से मेल न खाती। कभी कहती विरेन सच कहता है तो कभी कहती क्या सच में विवाह कर देने से सारी समस्या हल हो जायेगी? नहीं, उसका दिल कभी उसे स्वीकार नहीं कर सकता? भले क्षितिज उसे भूल जाये, क्या वह उसे भूला पायेगी? मुझे तो लगता है वह उसे और ज्यादा चाहने लगेगी और शायद उसकी ओर आकर्षित होकर कहीं होनेवाले पति के लिए बोझ न बन जाये। अजीब- सी कश्मकश थी किसका माने, किसका न माने। हम आखिर कौन होते है उसकी जिंदगी का फैसला करने वाले, उसके निजी जीवन में दखलअंदाजी करने का हमें कोई हक नहीं। परिवारवाले हुए तो क्या बिना उससे विमर्श कर जीवन का इतना बड़ा फैसला कर देना उचित है? हम तो एक बार भेज देंगे एक अनजान व्यक्ति के साथ, उसे तो जीवन बिताना है उसके साथ। क्या वह स्वीकार सकेंगी उसे? क्या परिवार को समझ पायेगी? अपना सब कुछ न्यौछावर कर सकती है वह? असंख्य सवाल मंडराने लगे सिर के ऊपर देवयानी के। बड़ी बहन और बचपन से देखती आयी है न उसको, स्वभाव से परिचित व्यक्ति के लिए चिंता सदैव जीवित रहती है अंतरात्मा में। 


मालती, आज नाश्ते में क्या बनाया है। मुझे तो बड़ी तेज भूख लगी.. सुंदरराम ने डायनिंग टेबल पर बैठते हुए अपनी पत्नी को आवाज दी। 

मुझे तो अकड़न सी महसूस हो रही है , कल की थकान से पूरा शरीर दर्द कर रहा है। मुझसे अब काम नहीं होगा.. मालती ने नाश्ता बनाने से इन्कार किया । 

ये लो गरमागरम नाश्ता सबके लिए तैयार है.. कहती हुई देवयानी नाश्ते की प्लेट लेते हुए उन्हें देने लगी। 

सभी ने बड़े चाव से नाश्ता किया और सुंदरराम ने बेटी के हाथ के बने पकौड़े के लिए तारीफों का पूल बाॅंध दिये। मालती ने मुंह फेरकर कहा, इतने सालों में तो कभी किसी की तारीफ न की और आज देखो कितनी तारीफ कर रहे है। 

क्यों न करें कोई अपनी बेटी की तारीफ कितने नाजों से पालन किया है और देखते - देखते कब बड़ी हो जाती है पता नहीं चलता। जैसे ये दिन और साल यूँ मौसम की तरह निकल जाते, उसी तरह कैसे अपनी बिटिया भी एक दिन परायी हो जाती है यह पता नहीं चलता। 

इस खुशनुमा माहौल में वे अपने दर्द को भूलकर हंसी- ठिठोली करने लगे। 


जब दरवाजे पर दस्तक हुईं तो विरेन के साथ अजनबी शख्स को देखकर वे चौंक गए। बिना इत्तला कर अजनबी को देखकर हर कोई हैरानी में पड़ जाता है। देवयानी समझ चुकी थी पर उसे यकीन नहीं हो रहा था कि सब इतनी जल्दी जल्दी कैसे हो सकता है। 


विरेन ने सुंदरराम को प्रणाम कर घर में पधारे मेहमान की जानकारी देते हुए कहा, बापूजी मुझे आपको बताते हुए खुशी होती है कि सुनैना विवाह करना चाहती है। उसका मानना है कि दोनों बहनों का ब्याह एक ही मंडप में हो, उसकी खुशी के खातिर ही मैंने ये लड़का देखा है। उनका परिवार सुख - संपन्न एवं ऐश्वर्य से परिपूर्ण होने के साथ- साथ ही दिपक पुश्तैनी व्यवसाय को संभालता है। 


सुंदरराम इस खबर को सुनकर खुशी जताते कि चौंके समझ में नहीं आता। वह तीनों एक दूसरे की तरफ देखते रहे। उनके माथे पर एक लकीर बन गयी थी चिंता, असमंजस के मिश्र भाव की। अब, इस बात का फैसला अचानक कैसे हो सकता है। वह शून्य से एक दूसरे की तरफ ताकतें रहे। 

विरेन के मुख से अप्रत्याशित बात सुनकर वे तीनों के मुख से क्या? यह प्रश्नावर्धक चीख निकल पड़ी। जिसे सुनकर सुनैना अपने कमरे से बाहर आकर सब नजारा देखने लगी, उसकी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था। वह नीचे उतरकर माँ के पास चली गई। देवयानी ने विरेन को अपने कमरे में आने का इशारा कर वह अपने कमरे में चली गई। सुंदरराम दिपक से बातचीत करने में व्यस्त हुए तो इसी मौके को देख विरेन देवयानी के पास चला गया। 



विरेन ये तुमने कैसे और क्या कर दिया वह भी इतनी तेजी से .. देवयानी ने सीधे मुद्दे को हाथ लगाया। 

तुम ये कैसी बातें करती हो देवयानी, ये फैसला हम दोनों का ही था कल समझाया तो था न तुम्हें फिर तुम ये कैसी बात करती हो.. कल की बात याद दिलाते हुए विरेन ने कहा। 

हाँ, तुमने मुझे समझाया तो था लेकिन ऐसे फैसला अचानक से नहीं लिए जाते है । मुझे पता नहीं था कि तुम सब इतनी जल्दी- जल्दी ये सब करवा दोगे, ऐसे निर्णय अकेले नहीं लिए जाते। सभी परिवारजनों की स्वीकृति तथा मुख्यतः लड़की की अनुमति इसके लिए महत्वपूर्ण होती है ताकि पूरा जीवन उस अनजान व्यक्ति के साथ उसे गुजारना है.. देवयानी विरेन को यह समझाने का प्रयास करती रही कि ऐसे फैसले अकेले नहीं लिए जाते । 

देवयानी समझने की चेष्टा करो, सुनैना इस हालत में नहीं है कि वह खुद कोई निर्णय ले। परिस्थितियों के चलते हमें बड़े होने के नाते उसे इस संजीदा मामले से दूर निकालना ही होगा और इससे बेहतर मुझे कोई एक रास्ता नहीं दिखाई देता, अगर तुम्हारे पास कोई दूसरा विकल्प है तो मैं अभी नीचे जाकर इस रिश्ते के लिए मना कर देता हूँ। 

विरेन की बातें उसे कुछ - कुछ सही लग रही थी। वह धर्मसंकट में पड़ गयी। कुछ क्षण पश्चात उसने कहा, लेकिन माँ - बापूजी उनका क्या? 

उनकी चिन्ता तुम मत करो, उन्हें मैं समझा दूंगा। बस, मुझे तुम्हारा साथ चाहिए.. हाथों में हाथ लेते हुए विरेन ने कहा। 

हा, विरेन तुमपर मुझे पूरा विश्वास है.. यह कहते हुए वे दोनों आपस में गले मिल जाते है और नेत्र ओझल हो गए। 


सुनैना जो कल हुआ उसमें तुम्हारी कोई गलती नहीं है, तुम्हें सबकुछ भूलकर अपनी नई जिंदगी शुरू करनी होगी। तुम्हारे सामने पूरी जिंदगी पड़ी है.. सुनैना को समझाते हुए देवयानी ने कहा। 

लेकिन दी, मैंने तो उसके साथ पूरी जिंदगी जीने का वादा ही नहीं बल्कि पूर्ण समर्पण के साथ प्रेम किया था। मैंने तो कहीं सुना था कि प्यार पूर्ण समर्पण चाहता है तो मैंने वही तो किया फिर भी आज मैं अकेली हो गई। ऐसा लगता है, सब झूठ है, फरेब है इस दुनिया में.. अपनी मन की वेदना कहती हुई रोती रही। 

ऐसा नहीं है, सुनैना यह दुनिया ऐसे झूठे और सच्चे लोगों से भरी हुई है। वैसे भी कोई इंसान बुरा नहीं होता बल्कि उसे परिस्थिति वैसे बनाती है। क्षितिज की भी कोई परिस्थिती होगी, जिसे वह कह न सका हो.. देवयानी ने समझाते हुए कहा। 

तुम्हें आनेवाले कल को बेहतर बनाना होगा और उसे अच्छा करने के लिए तुम्हें विवाह करना होगा, तुम्हारे सामने सारा जीवन पड़ा है और उसे बेहतर बनाना या न बनाना यह तुम्हारे हाथों में है.. बातों- बातों में देवयानी ने उसे विवाह करने की सलाह दी। 

मैं उसे भूल जाऊँ ये तुम कैसे कह सकती हो, नहीं मैं उसे नहीं भूल सकती। मैं उसके बिना किसी और से शादी नहीं करूँगी .. सुनैना कहने लगी। 

यही तुम्हारे लिए सही है सुनैना, तुम्हें छोड़कर चले जाने के बाद वह एक नया जीवन शुरू करना चाह रहा होगा, नहीं तो वह तुम्हें क्यों छोड़कर जाता । 

देवयानी की ये बातें उसे सच लगी, नहीं तो वह क्यों ऐसे अचानक से छोड़ देता। ऐसी कौन - सी बातें हुई कि मुझे उसे दूर होना पड़ा। उसपर विश्वास था कि वह कभी ऐसा सोच भी नहीं सकता किंतु आज वो ही इतने दूर चला गया जहाँ से उसे वापस बुलाना संभव नहीं। थक - हार कर काफी सोच- विचार करने के बाद ही सुनैना ने शादी के लिए राजी हुई। 


विरेन ने भी माॅं- बापूजी को मना लिया था। सारी व्यवस्था करने में गति प्राप्त हो गई। हप्ते भर के बाद सुनैना भी सारे रिश्तेदारों में घुलमिलकर रहने लगी । देवयानी उसे देखकर काफी खुश थी, उसका विरेन के प्रति विश्वास और दृढ़ हो गया। विरेन के उस फैसले के कारण ही सुनैना आज बहुत खुश थी। अगर कुछ देर वक्त करते तो सुनैना सिर्फ शरीर से जीवित रहती और आत्मा से मर जाती। 


देखते- देखते हसी - मजाक के साथ दो महीने कब बीत गये पता नहीं चला और शादी का दिन आ गया। दोनों बहनों की डोलियाँ आज एक साथ उठने वाले थी। सुंदरराम और मालती एक ओर खुशी से फूल नहीं समाते तो उनकी ऑंखें उनका दर्द बयां कर रहा था जो किसी को नहीं दिखाई दे रहा था । ये आनंद और उल्लास एक माता- पिता का सपना साकार होने जैसा है तो दूसरी ओर दोनों बहनों का एक साथ विदा होना यह एक दर्द। 



उनकी दोनों बेटियां अपने जीवन का नया और महत्वपूर्ण अध्याय शुरू करने वाले थे। शुभार्शिवाद देते हुए उन्हें विदा किया गया। उन्हें विदा करते समय सुंदरराम ने दिपक और विरेन को बस इतना कहा, " मेरी बच्चियों का ध्यान रखना " इतना कहते हुए उनके नेत्र ओझल हो गए और वह दूर जाकर उन्हें विदा करने लगे। 


सुनैना ने जैसा सोचा था, उससे बढ़कर उसे ससुराल मिला था शायद क्षितिज से अच्छा हमसफ़र। जैसे- जैसे दिन बीतते चले गए वैसे- वैसे वह भी अपनी गृहस्थी में परिपक्व होती चली गई। सास - ससुर की सेवा करना और घर के कार्य करने से उसे जो आत्मशांति मिला करती, वह अन्य किसी काम से उसे न मिलती। उनके परिवार के संबंधी, रिश्तेदारों में वह बहुत जल्दी समरस हो गई थी। कोई भी चिंता उसे नहीं सताती। उसे अपनी गृहस्थी से कभी फुरसत नहीं मिलती क्योंकि उसी के कहने पर घर से कामवाली को निकाल दिया गया था। सास ने उसे खूब समझाया कि रख लेते हैं न उसे लेकिन सुनैना के शब्दों ने सासू - माँ को द्रवित कर दिया। देवकी भी ऐसी बहू को पाकर सुखी थी। 


सुनैना, जरा इधर तो आओ बिटिया.. देवकी ने अपने कमरे से बहु को आवाज दी। 

हाँ, माँ अभी आयी.. कहते हुए भोजन बनाती हुईं सुनैना सास के कमरे की ओर चली गई। 

क्या बात है माँ जी? 

सुनैना, जरा मेरे पैरों में दर्द हो रहा है तो कोई दवाई लाकर दे दो.. दर्द से कराहती आवाज से कहा। 

उसमें दवाई लेने का क्या काम, मैं अभी आपके पैरों की मालिश कर देती हूँ। आपको अच्छा महसूस होगा, मैं अभी गॅस बंद कर आती हूँ.. इतना कहकर वह अंदर चली गई। 


सच में कितनी भाग्यशाली हूँ मैं और मेरा दिपक जो इतनी मेहनती और सुसंस्कारित बहू जो मिली है। आजकल की नई लड़कियां कुछ ही हफ्तों बाद अपने सास - ससुर को घर से निकाल देते है। सच में इतनी अच्छी बहू मिलना मेरे लिए सौभाग्य की बात है, यह किसी अच्छे कर्मों का ही फल है। देवकी मन ही मन अपने बहू की प्रशंसा कर रही थी, उसी वक्त सुनैना उनके पास चली आई। 


सुनैना बचपन से ही सोचती कि मैं अपनी माँ की तरह सास - ससुर की सेवा कर सकूँ। उसका मुख सदैव प्रसन्नचित्त रहने का यही एक कारण था, कि उसका स्वप्न पूरा हो गया था। वह दिन- भर अपनी सास से कुछ न कुछ अलग सीखने का प्रयास करती थी। देवकी भी उसके हर्षोन्मुख, हर्षित चेहरे को देखकर अपनी पीड़ा को भूलकर उसे नया ज्ञान प्रदान करती। उत्साह, उमंग के साथ ही किसी युवा शक्ति की भांति बुढ़िया उसके साथ काम करने लग जाती जिसे देखकर मन ही मन दयानन्द जी को अच्छा महसूस होता। 


दिपक तो सुबह ही अपने काम पर चला जाता है। दयानन्द भी सुबह- सुबह सूरज के किरणें धरती पर पड़ते ही अपने सहकारी मित्रों के साथ सैरपटाका करने चले जाते है। फिर नाश्ता करने के बाद अपने बेटे के पास कुछ वक्त गुजारने के बाद घर चले आते है। दुपहर के समय जब कभी घर पर ठहरते तो सास - बहू के इस रिश्ते को देखकर उनकी खुशी द्विगुणित हो जाती। उन्हें इन दिनों काफी समाचार मिलते कि आज किसी बहू ने अपनी सास की रोज - रोज की बकबक सुनकर कुछ दिन मायके चली गई, पिछले ही दिनों सुजाता ने अपनी सास को ही थप्पड़ मार दिया जिसके चलते सुजाता को शशांक ने अपने घर भेज दिया। जब सुजाता को पता चला कि उसकी सास हर वक़्त मोहल्ले की औरतों के समक्ष बुराई करती रहती है तो एक दिन उन दोनों के बीच बड़ा घमासान हुआ और गुस्से में आकर सुजाता अपने आपे में नहीं रही, अपनी सास पर हाथ उठा लिया। ऐसे अनगिनत खबरें उसके कानों पर पड़ती रहती है। दयानन्द इस मामले में सुखी थे, उनके घर सास सास न रहकर माँ थी और बहू बहू न रहकर बेटी थी। 


दयानन्द की तबियत इन दिनों खराब रहती तो वह ज्यादा समय घर में ही रहते । बुढ़ापे में यह सब तो चलता रहता है यह बात उन्हें पता थी, किन्तु उनकी एक छोटी- सी आस थी अपने पुत्र से कि मरने से पूर्व अपने पौत्र से खेले। उनके जर्जर शरीर की तरफ देखकर उन्हें यह आस धूमिल- सी लगने लगी थी। सुनैना ही थी, जो उनको शक्ति प्रदान करती। समय - समय पर दवाई देना या अस्पताल ले जाना वही देखती। दिपक भी निश्चिन्त था अपने पत्नी के व्यवहार से। धर्मपत्नी सच में संस्कारी एवं धर्मपरायण औरत थी, जिसको होने से यह घर एक मंदिर सा लगने लगा जहाँ पर हर एक अतिथि की सेवा सुश्रुषा आदरभाव एवं आत्मीयता से की जाती। 


रात के करीब ग्यारह बच चुके थे, लेकिन दिपक अब भी घर पर नहीं आया था इससे सबको चिन्ता हो रही थी। बार - बार फोन करने के बाद भी वह उसे उठा नहीं रहा था, इससे घरवालों को अधिक चिन्ता सताने लगी। खासकर देवकी को वह माँ थी न दिपक की। दयानन्द तो उसे लाने के लिए निकल रहे थे लेकिन सुनैना के कहने पर ही वह ठहर गए। 


बहूरानी, मैं अभी जाकर उसे लेकर आता हूँ। कहीं फंस गया होगा बेचारा.. दयानन्द ने बाहर जाने की मंशा से कहा। 

नहीं बापूजी वो बस आते ही होंगे, शायद आज काम कुछ ज्यादा होगा इसलिए उन्हें इतनी देर हो रही होगी .. सुनैना ने उन्हें चिन्ता में देखकर आश्वस्त किया। 

बहू, तुम चूप रहो उन्हें जाकर देख आने दो, बरसों से वह कभी इतनी देर तक कभी नहीं आया। आप जाकर आओ, मुझे उसकी चिन्ता हो रही है.. देवकी ने अपनी बहू की बात को टालते हुए दयानन्द को जाने के लिए कहा। 


सुनैना की एक न चलीं और दयानन्द कपड़े पहनकर घर का दरवाजा खोलने के लिए जा ही रहे थे कि तभी दरवाजे पर दस्तक हुईं। दरवाजा खोलकर देखा तो सामने नितेश खड़ा हुआ था, नितेश कोई और नहीं बल्कि दुकान का काम देखनेवाला सहचर साथी था। 

दिदी, दिदी वो भैया को अस्पताल में.. इतना ही वह कह पाया। 

उसकी आवाज भर्रायी - सी निकल रही थी। 

क्या हुआ मेरे बेटे दिपक को.. देवकी ने भय से पूछा। 

नितेश कुछ कहने को तैयार नहीं था, वे तीनों बिना कोई देरी करें अस्पताल की ओर दौड़ने लगे। 


अचानक ये सब कैसे हुआ? किसी को पता नहीं चला। दयानन्द ने जब नितेश को पूछा, तो वह अनुत्तरित था। मगर एक बात वह जानता था कि दिपक जब यहाँ से जा रहा था तो काफी क्रोधित और दु: खी था जिसका कारण वह नहीं समझ सका। नितेश को उसने दोस्तों ने बताया कि दिपक आज शराब पी रहा था और उसी वक्त किसीसे मुठभेड़ होने के कारण वह घायल हुआ। बिना कोई देरी करें, मैं सेठजी को यहाँ अस्पताल लेकर आया और सीधे आपको खबर दी। 


दिपक ने तो आजतक शराब को हाथ भी न लगाया था तो वह शराब की दुकान क्यों गया होगा? उसपर हमला किसने किया? उसकी किसी से दुश्मनी भी नहीं तो उसे कौन मारना चाहता है? कितने ही सवालों से घिर गए थे दयानन्द जी। उन्हें पहले तो इस बात का पता लगाना था कि दिपक बार में क्यों गया? कुछ नहीं तो उसके ऐसे कौन मित्र है जो उसे यहाँ ला सकते है? चिन्तित से दयानन्द खामोश से अपने बेटे को स्वयं के घावों से लड़ते देख रहे थे। देवकी ने स्वयं का रो - रो कर बुरा हाल बना लिया था। सुनैना अपनी सास को धीरज देती और मन ही मन ईश्वर से प्रार्थना करती, जो हुआ वो क्यों हुआ और कैसे हुआ? इस बात से अनजान सुनैना अपने पति के जीवन की रक्षा के लिए निरंतर भक्तिभाव से पूजा, अर्चना कर रही थी। 


कुछ देर बाद जब डॉक्टर दिपक का ऑपरेशन करके आये तो उन्होंने बताया कि " दिपक की जान तो बच गयी है किंतु शराब का अति सेवन की वजह से उसका दिमाग शून्य सा हो गया है, उसका सिर्फ शरीर रहा पर जान नहीं रही। " डॉक्टर के मुंह से यह सुनकर वे तीनों को जोर - से धक्का लगा। किसी एक व्यक्ति की भूल के कारण कैसे हॅंसता- खेलता परिवार बिखर जाता है, इसका एहसास उन्हें हुआ। 


दयानन्द को वह बात याद आयी, जिसको वह अतीत के एक फटे पन्ने की तरह भूल चुके थे। कुछ साल पहले दिपक की शादी लिना के संग पूर्ण परिवार की सहमति के साथ कर दी गई थी। दिखने में अत्यंत रूपवान, मिलनसार व्यक्तित्व की धनि, घर में आये मेहमानों का आवाभगत करने में हरपल, हरक्षण तत्पर रहती। बहुत अच्छे से दोनों का संसार चल रहा था पर जब एक दिन फूफी ने देवकी को कहा कि, देवकी भले तुम्हारी बहू संस्कारी और गुणवान हो किंतु उसे लड़का नहीं तो उसके गुणों का क्या फायदा? फूफी की यह बात सुनकर देवकी सोच में पड़ गयी। फूफी तो चली गई किंतु पोते की लालसा मन में जाग उठी। सही तो कहती है बुढ़ापे में पोते की खुशी हमें चाहिए ही। देवकी उस दिन के बात हर एक दिन अपनी बहू को ताने कसने लगी, जो काम बन पड़े उसकी शारीरिक क्षमता को देखें बिना करवाने लगी। हररोज की जबरदस्ती उसे असहनीय होने लगीं और लिना ने घर छोड़ दिया। वह फिर वापस मुड़कर घर नहीं आयी और ना ही दिपक ने उसकी कोई खबर ली। 


 ७

दिपक की बिमारी के चलते वह कहीं आ और जा नहीं सकता था। सुनैना बड़ी हिम्मत वाली लड़की थी, उसी ने उसे पूरी तरह संभालने का जिम्मा ले लिया। उसे सुबह सुबह सैर करा लाती, उसे हंसाने की नाकाम चेष्टाएँ उसके द्वारा की जाती किन्तु सब विफल प्रयास। देवकी अपने बेटे का यह हाल देख नहीं पा रही थी, वह जब कभी रोने लगती तब - तब सुनैना उसे रोक देती। यह सिलसिला हररोज चलता बावजूद उसने न हिम्मत हारी ना धैर्य खोया। उसे विश्वास और श्रद्धा थी कि भगवान उसका साथ जरूर देगा। 


जब कभी सुनैना बाहर जाती तो आस - पड़ोस वालों के मुख से देवकी की वो बातें जो उसे आजतक किसी ने बतायीं न थी वह पता चलने लगी। उनके मुँह से देवकी के लिए निकलते हर एक शब्द उसे तीर की तरह चुभते। भले ही देवकी गलत हो पर उनकी भी कोई मजबूरी रही होगी न इस प्रकार के व्यवहार के पीछे। सुनैना ऐसी ही थी, उसे कोई इन्सान बुरा नहीं लगता चाहे उसने कोई अन्याय ही किया हो। जो लिना के साथ देवकी द्वारा किया गया था, वह निश्चित ही बुरा व्यवहार था पर लिना ने भी संयम, शांति और बातचीत से रास्ता अपनाया होता तो निश्चित ही उनके साथ ऐसा नहीं होता। 


सुनैना की भक्ति और निष्ठा का ही फल था कि दिपक धीरे- धीरे पूर्ववत होने लगा था। डॉक्टर ने अपने हाथ खड़े कर दिये थे, मगर सुनैना की मेहनत ने दिपक को एक नया जीवन प्रदान किया था। एक दिन जब सुनैना दुकान से घर आ रही थी तभी उसकी मुलाकात उस शख्स से हुई, जिसकी वह कभी पूजा करती थी, दिवानों की तरह प्रेम करती। हा, वह क्षितिज ही था, जिसने उसका रास्ता रोक लिया था। 


बड़ी हिम्मत वाली हो तुम सुनैना, मुझे ठुकराकर तुम बहुत खुश हो न। कभी सोचा नहीं था कि तुम मुझे इस तरह धोखा दोगी.. क्षितिज ने सुनैना का रास्ता रोकते हुए कहा। 

धोखा किसने? मैंने तो सच्ची मोहब्बत की थी मगर जब खुद पर विश्वास नहीं रहता अपने प्यार का तो मैं कुछ नहीं कर सकती। वैसे भी छोड़कर मैं नहीं बल्कि तुम गये थे क्षितिज, तुम.. सच्ची बात कहते हुए उसका आवाज जोर से निकल रहा था। 

मेरी एक बात पर तुमने विश्वास कर लिया, फिर कभी पिछे मुड़कर देखा भी नहीं। आखिर उसकी वजह क्या थी? क्या वह इस निर्णय से सुखी है? तुम खुदगर्ज हो गयी हो सुनैना क्योंकि तुम्हें अपना जीवनसाथी मिल गया है? तुम्हें अपने प्यार पर कोई भरोसा नहीं रहा? अगर होता तो पिछे मुड़कर जरूर देखती? 


खुदगर्ज! यह शब्द कितना आघात पहुँचा गया मुझे। आखिर मैंने क्या गलती की उससे बात नहीं करने से। वे ही मुझे मिलना नहीं चाहता था। अगर वो भी प्रेम का प्यासा था, तो क्यों नहीं ले गया मुझे शादी के मंडप से। मैं तो तभी चली जाती उसके एक बुलावे पर, आखिर मैं भी किसी की नजर में न चाहकर भी स्वार्थी हो ही गईं। मैंने कभी किसी का अहित नहीं किया, न किसी को धोखा दिया लेकिन मैं फिर भी एक खुदगर्ज महिला हूँ, मैं खुदगर्ज हूँ। दिदी की वो बातें मुझे सही लगी थी कि अगर वह तुझसे सच्चा प्रेम करता तो क्यों छोड़कर चला जाता। आज की उसकी ये बातें मुझे अपमानित करने की चेष्टा है या फिर मन- परिवर्तन। जो प्रेम उसने मुझसे उन दिनों किया था उसका वास्तविक रूप मैं उसके नेत्रों में देख रही हूँ, या कोई फरेब जो मुझे कोई और नया आघात पहुँचाने वाला था आने वाले दिनों में। 


नहीं, क्षितिज तुम झूठ बोल रहे हो मैंने तो तुमसे सात जन्मों का जीवन जीने का वादा किया था जो तुम किसी के अंधे प्यार में डूबकर भूल गए थे। जब तुम्हें वह नहीं मिला तो तुम पुनः यहाँ लौटे हो, अपनी सच्ची मोहब्बत को पाने के लिए। अब काफी देर हो गई है क्योंकि मैं किसी और की हूँ, जिसके साथ सात जन्मों की रस्में, वादे लिए है । 

हा, पता है ना तुमने उस दिपक के साथ शादी की है न जो कभी बाप नहीं बन सकता। उस बेचारी लिना ने समय रहते ही उस परिवार को छोड़ दिया ताकि उसे पता चल गया अपने पति में ही खोट है और कभी माॅं नहीं बन सकती। आखिर उस लड़की की कोई भूल नहीं थी पर मानसिक प्रताड़ना दे देकर उसे इतना कमजोर कर दिया की वह यह कदम नहीं उठाती तो अवश्य वह लोग उसे मार देते.. दिपक के परिवार का भयावह सत्य क्षितिज ने सुनैना के समक्ष रखा। 

इतनी क्रूर और भयावह सत्य सुनकर सुनैना डर गयी। लेकिन अब भी जानना चाहती थी कि क्षितिज को इसके बारे में इतना सबकुछ कैसे मालूम है। 


 सुनो ना सुनैना, सुन तो लो मेरी बात.. क्षितिज ने सुनैना को रोकते हुए कहा। 

क्या और क्यों सुनूँ मैं तुम्हारी बातें, जब मैं तुम्हें बार - बार पुकार रही थी तो तुम रूके थे और आज मुझे रोककर क्या चाहते हो कि मैं तुम्हारे पास आ जाऊँ .. क्रोध में सुनैना आग बबूला हो रही थी। 


सुनैना का ये बर्ताव भले ही उसे ठीक न लगा हो किन्तु ऐसा करना उसका स्वाभाविक ही था। जब कोई आपसे बहुत गहरा प्रेम करें और अचानक किसी वजह से उसका त्याग कर दे, तो उसके बिछड़ने का दर्द भला कोई जान सकता है। मैं तो हरपल यही चाहती रही की क्षितिज के संग इस प्रेम संबंध को नया क्षितिज प्रदान करें, किन्तु आखिर वही हुआ जो नियति को मंजूर था। आज जब मेरे ऊपर एक परिवार के संपूर्ण दायित्व आ पड़े है तो तुम कहते हो, मैं तुम्हारे साथ हूँ। 


नहीं क्षितिज, मैं अब कुछ सुनना नहीं चाहतीं। दूर हो जाओ मेरी नजरों से.. कहकर सुनैना पैर पटकते हुए अपने रास्ते निकल पड़ी। 

जाने से पूर्व एक बात जान लो, दिपक की इस स्थिति की जिम्मेदारी सिर्फ तुम ही हो, हा सुनैना तुम्हारे ही कारण दिपक आज अधमरा होकर लाचार की भांति जीवन जी रहा है.. क्षितिज ने जोर से अपनी बात सुनाई तो सुनैना वही ठिठक गई। 


सुनैना को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्षितिज मेरे उपर ये कैसा मिथ्या आरोप लगा रहा है, वह उसके समक्ष मेज पर बैठ गयी। 

ये तुम क्या कह रहे हो? दिपक की इस दशा के पीछे मैं हूँ, तुम्हारे कहने का मतलब क्या है? 

हा, तुम नहीं तो और कौन है इसके पीछे। ना तुम मुझे छोड़कर चली जाती ना ये सबकुछ तुम्हारे साथ होता? 

क्यों तुम मुझे बार - बार दोष दे रहे हो, मैंने तुम्हारा साथ तुम्हारे कहने से छोड़ा था ना बल्कि मेरी अपनी इच्छा से। 

हा, मैं तुम्हें यही समझाने की कोशिश कर रहा हूँ कि भले तुमने किसी और से शादी की है किन्तु तुम्हारा मेरे प्रति जो प्रेम है वह अभी जीवित है। तुम समझने की चेष्टा करों सुनैना, तुम अब भी मुझसे उतना ही चाहती हो जितना उन दिनों चाहती थी। तो क्यों ना भूतकालिक बातों को भूलकर अपना नया जीवन शुरू करें.. ऑंखों में ऑंखें डालकर और उसका हाथ अपने हाथों में डालकर क्षितिज ने अपना मत प्रकट किया। 

नहीं, अब काफी देर हो चुकी है। मैं अपना हाथ किसी और को सौंप चुकी हूँ .. अपना हाथ छुड़ाते हुए सुनैना ने कहा। 


जो बात उसे क्षितिज से जाननी थीं। उन बातों को जानने की भरसक कोशिश करने के बावजूद भी उसकी मिठी और गोल - गोल बातों से वह जान नहीं सकती थी। उसपर इतना विश्वास था कि वह चाहकर भी उसके बारे में ऐसा सोच नहीं सकती, लेकिन कुछ परिस्थितियॉं जीवन में हमारे समक्ष ऐसे उठकर प्रस्तुत हो जाती है, जिसे चाहकर भी अनदेखा नहीं किया जा सकता था। 


सुनैना को अब यहाँ पर बैठना असहज लगने लगा, वह सीधे अपने रास्ते चल पड़ी। क्षितिज को यह सारी मेहनत बेकार- सी लगने लगी। ना वह उस लालची औरत के बातों में आता ना उसे सुनैना को छोड़ना पड़ता। वह सुनैना को बहुत दूर तक जाते हुए एकटक निहारता रहा। सुनैना में उसे ऐसी परिपक्व स्त्री की छवि दिखाई दे रही थी, जिसने जीवन के बरसों साल स्वयं के सुख - चैन का त्याग किया हो। उसने अपना संपूर्ण जीवन दूसरे के लिए समर्पित कर दिया है। 


सुनैना, रास्ते भर एक ही चिन्ता में डूबी हुई थी कि आखिर दिपक का यह हाल क्यों हुआ? उसके जीवन में अगर मैं न आती तो यह सब नहीं होता? अगर दिदी और जीजू को मेरी इतनी ही चिन्ता थी तो मेरा जीवन सुखकर करने के लिए मुझे क्षितिज से बात करने का सुझाव क्यों नहीं दिया? बेचारी वह भी क्या करती जब क्षितिज ने ही मुझसे दूर रहने का फैसला कर लिया था? क्या सच में मुझे एक बार बात कर लेनी चाहिए थी? उसे जो इतना मुझसे प्रेम था तो क्यों नहीं उसने अपनी बात मेरे समक्ष बताईं? क्षितिज ने आखिर किसके बहकावे में आकर यह रास्ता अपनाया? यह बात वह मुझसे क्यों नहीं कह पा रहा है? अपने प्रेम पर किसकी काली नजरें पड़ी हुई थी, जिसे हम समझ नहीं पाये? उस घटना के तीन साल बाद उसे अपने फैसले पर पछतावा आखिर क्यों होने लगा? इन सबके पीछे कोई काली, अदृश्य शक्ति तो नहीं जो हमारे बीच के संबंधों को तोड़ना चाह रही हो? लिना भी तो पढ़ी - लिखी लड़की थी तो उसके साथ इतना दुष्कर्म कैसे हुआ? दिपक भले ही भोला था, अपने माता- पिता की बातों का सम्मान करता पर वह एक नारी की व्यथा समझ न सका? क्यों इतना बेबस हुआ वो अपनी माँ के आगे और क्यों नहीं रोक पाया इस बुरे व्यवहार को? क्या आज भी नारी को शोषित रहकर जीवन बिताना है, क्यों नहीं वो अपनी आवाज बुलंद कर सकती है? न जाने कितने ही सवालों का घर बन गया था उसका मन। लोगों की मानसिकता आज भी उसे पुरूष प्रधान सोच की लग रही थी। जहाँ पर नारी मन की बात- बात पर अवहेलना होती है, उसकी हर एक बात दुत्कार दी जाती है। उसे अपने मन का निर्णय लेने का अधिकार तो है किन्तु समाज के अप्रदर्शित भय एवं संकोच के कारण वह समय - समय पर स्वयं को कठघरे में पाती है। 


सुनैना घर की तरफ जा रही थी, पर अचानक एक गली मोड़कर वह अपने दुकान पर आ गयी। सहसा दिपक की जगह दुकान संभालने का कार्य नितेश ही करता था। वह दुकान का सामान लगाने के काम में व्यस्त था। जब उसकी नजर सुनैना पर पड़ीं तो उसने उसका स्वागत किया। 

दिदी, आइये आज यहाँ कैसे आना हुआ.. कुर्सी सुनैना की तरफ बढ़ाते हुए बैठने को कहा। 

कुछ नहीं, जरा अस्पताल में आयी थी तो सोचा कि थोड़ी देर आराम करने यहाँ चले आऊँ। 

अच्छा किया, आज कडकती लू के कारण गरमी बहुत ज्यादा हैं, तो थोड़ी देर यहाँ रूककर घर चले जाना। 

अच्छा , इतना कहकर सुनैना पंखे की हवा के नीचे कुर्सी पर बैठी रही। 

नितेश ने उसके लिए ठण्डा मंगवाया, और वह अपने काम में जुट गया। 


सुनैना, तो सोचकर आयी थी कुछ देर आराम कर लूँ किन्तु उसके मस्तिष्क में रह - रहकर क्षितिज की बातें आ रही थी। बाजार जरा ढीला चल रहा था तो उसने नितेश को घर जाने के लिए कह दिया और चाबी मुझसे कल ले जाना यह कहकर उसे छुट्टी दे दी। बारह कदम दूर जाने के बाद जब नितेश उसकी आँखों से ओझल हो गया तो सुनैना ने चुपचाप से दुकान का शटर अंदर से बंद कर लिया। 


सुनैना खुद को कोसते हुए गला फाड़- फाड़कर खूब रोने लगी, उसने मुंह में कागद ठूस लिये थे ताकि उसकी आवाज कोई न सुने। उसका ये मत पक्का था कि अपने क्रोध को शांत करने के लिए किसीसे बात या बहस कर लेनी चाहिए या फिर रोकर दिल हल्का कर ले। इस परिस्थिति का उसका कोई दोष न होकर भी खुद को दोष दे रही सुनैना के नेत्रों से गंगा बहने लगी थी। 


कुछ देर के उपरांत सुनैना ने स्वयं को शांत किया। नियति का रचा जो भी है, उसे वह स्वीकारना चाहती है। उसे अपना कर्तव्य दिखाई दे रहा था जो कि उन बूढ़े माँ- बाप की सेवा और दिपक का साथ ही उसका धर्म है। एक विवाहिता स्त्री का परम कर्तव्य उसे यही कहता है कि वह अपने परिवार का हर स्थिति में साथ दे ना कि उन्हें विपदा में देखकर छोड़ दे । सुनैना शाम होते - होते घर चली आयी और किसीसे कोई बात करे बिना वह चूल्हे को देखने लगी। 


जब उसे एक अजीब सी आवाज आयी तो देखा कि देवकी जी अपने कमरे में रो रही थी। सुनैना उनके पास जाकर उनको शांत करने लगी। 

" बेटी सुनैना, हमने तुम्हारे साथ दगा किया है। हम लोगों ने तुम्हारे परिवार को दिपक के बारे में ,उसके अतित के बारे में ना बताकर तुम्हें फंसाया है। उसी की सजा जो मुझे मिलनी चाहिए थी, वह दिपक भुगत रहा है। सच बताऊँ तुम्हें कौन ऐसी बूढ़ी न होगी जिसे अपने पोते की उम्मीद ना हो। सब बिल्कुल सही चल रहा था, किन्तु जब मन में कोई वह बातें डाल दे जाता है न तो बार - बार वही सोचकर मन शरीर के साथ मिलकर कुछ न कुछ गलत कर बैठता है और वही मेरे साथ हुआ। दिपक तो शादी के खयाल से डरने लगा था, लेकिन माँ हूँ ना मैं उसकी सोचा पूरी जीवन अकेला उसका कैसे निबाह होगा । आज तू है इसी कारण इस घर में सुख, चैन और अमन है नहीं तो यह परिवार अबतक कहीं बरबाद हो जाता। " .. देवकी ने तो अपनी बात सुनैना को कहकर स्वयं को शांत कर लिया किन्तु सुनैना अपने आप को अभी भी शांत नहीं कर पा रहीं थी। 


बदले की भावना से तो एक इन्सान सुखी हो सकता है पर उसके पीछे कितने लोग बर्बाद हो जाते है उसका ज्ञान उस व्यक्ति को नहीं हो पाता जब तक स्वयं पर वैसा व्यवहार हो जाये। दयानन्द भी इस बात से अनभिज्ञ रहे कि दिपक पर हमला किसने करवाया, लेकिन वह समझ चुके थे कि इस स्थिति के लिए केवल एक ही जिम्मेदार है। वही औरत तो है जो दिपक का बुरा करना चाहेगी वैसे तो किसी से उसकी कोई दुश्मनी भी तो नहीं। उन्हें कुछ सबूत पता चलने की देरी थी, पर उन्हें कोई सबूत भी तो नहीं मिल पा रहा था। इसकी तह तक पहुँचने की उन्होंने भरसक कोशिश की पर वह उन्हें सबक देने से कतराते रहें। उनके मन में एक सवाल जागा कि अगर उनके मन में कुछ ऐसी मंशा रहती तो वह क्यों इतने सालों का इंतजार करते, बस यही एक सवाल और उनके कदम दहलीज के बाहर न जाते। देवकी की भूल ने आज हंसते खेलते परिवार को इस दहलीज पर आ खड़ा किया था कि इससे उबरना शायद ही मेरे जीते जी संभव नहीं रहा।उज्ज्वल भविष्य की ओर बढ़ते परिवार की संभावना उसे अब अवनति की तरफ दिखाई दे रही है। काश! अगर उस समय मैं उसे रोक सकता तो मेरे जीते जी मुझे यह बर्बादी का मंजर तो देखना नहीं पड़ता। आजकल दयानन्द सुबह उठते इन विचारों से और रात को सोते अनुत्तरित जवाब से। 


१०

क्षितिज सुनैना को समझ नहीं पा रहा था। उसके मन में तो सिर्फ एक ही धुन सवार थी कि वह सुनैना को किसी भी हालत में पाना चाहता है। उसे हर हाल में पाने की चेष्टा करते हुए उसने कितने मार्ग अपनाये किन्तु सुनैना का निर्णय उसको स्तब्ध कर गया। कितनी निर्भीक, शूर और अदम्य साहस का प्रतीक बन गयी थी वो पिछले कुछ सालों में। उसके मन से अपना अतित मिट चुका वह तो उन निर्दयी व्यक्ति के साथ सत्यता जानते हुए भी जिने का ठाम विश्वास कर चुकी हूँ। क्या वही अकेली है इस संसार में जो इस त्रासदी को झेल रही है? कितनी ही स्त्रियाँ है जो अपने पति का अनैतिक संबंध देखकर उसे छोड़ देते है? यहाँ पर तो उस दिपक ने तो उसके समूचे परिवार को दु: ख पहुँचाया है फिर भी सुनैना उसे छोड़कर जाने के लिए तैयार नहीं। क्या करूँ इस लड़की का मैं, कैसे उसको वापस बुलाऊँ? मेरी तो मति ही भ्रष्ट हो चूकी है। दिपक रात दिन एक ही नाम की माला जपता और उसे पाने का विचार करता रहता। सुनैना... सुनैना.... । 


एक आखिरी दांव उसे सुझा और बेधड़क, निडरता के साथ क्षितिज ने सुंदरराम जी के घर का रास्ता पकड़ लिया। वह उनके घर पहुँच गया और दरवाजे पर दस्तक दी। 

दरवाजा खोला तो उसने सामने देवयानी को पाया और उसके साथ विरेन भी वहाँ मौजूद था। वह दोनों ही क्षितिज को देखकर चौंक गए क्योंकि वह उसे भलीभाँति जानते थे। 


क्षितिज ने किसी भी प्रकार का विलंब करते बिना सुंदरराम को अपनी बेटी सुनैना के परिवार के बारे में कहा, जिस बात से वह आजतक अनभिज्ञ रहें। उन्हें सलाह भी दी कि वह अगर सुनैना को सुरक्षित और सुखी देखना चाहते है तो उसे वापस घर लेकर आये। सुंदरराम तो उसपर विश्वास नहीं कर रहे थे ताकि वह उसे जानते तक नहीं थे। क्षितिज भी कोई कमजोर खिलाड़ी नहीं था उसने सुंदरराम को बस इतना ही कहा कि " मैंने आपको एक हितचिंतक की भांति आगाह कर दिया है, अगर तुम नहीं विश्वास कर सकते तो सुनैना से बात कर सकते हो, वह सबकुछ जानती है लेकिन वह आपके सम्मान के लिए यहाँपर आना नहीं चाहतीं। " क्षितिज के कहने से उनका विश्वास हो गया। उन्होंने अपनी बेटी को फोन किया लेकिन फोन रिसीव नहीं हो पाया। सुंदरराम, उनकी पत्नी के साथ- साथ देवयानी और विरेन भी चिंतित होने लगे। मालती के भारी दबाव और चिंता की लकीर को देखकर उन्होंने तुरंत अपने बेटी के घर जाना स्वीकार किया। 


दयानन्द बाहर गलियारे में बैठे- बैठे समाचार पत्र के पन्ने पढ़ रहे थे। देवकी भी अपने काम में लगी हुई थी और सुनैना दिपक को बरामदे में घुमा रहीं थी, यही उनकी दिनचर्या थी कई महिनों से। 

दयानन्द जी ने गाड़ी का आवाज सुनकर बाहर देखा तो समधी जी को देखकर वह प्रसन्न हुए। उनके साथ सभी को सम्मान पूर्वक अंदर बुलाया और आवाभगत करने लगे। सुनैना भी उन्हें इतने दिनों बाद साथ देखकर आनंदित हो गयी, लेकिन जब उसने क्षितिज को वहाँ देखा तो वह चौंक गयी। 


बहुत देर तक उन्होंने यहाँ- वहाँ की बातें की लेकिन अवसर पाते ही सुंदरराम जी ने उस सच्चाई के बारे में पूछा तो वह सहम गए। 


सुनैना, मेरी बेटी चली आओ मेरे साथ। क्यों रहती हो इन धोखेबाजों के साथ? इतनी तकलीफ है तो क्यों नहीं कहती कि मुझे उनके साथ नहीं रहना.. सुंदरराम ने सीधे अपनी बेटी को घर आने के लिए कहा। 

नहीं, बापूजी मैं अब वापस नहीं आ सकती। मैंने इनसे विवाह किया है और यह परिवार और उसकी जिम्मेदारी अब पूर्णतया हमारे कंधों पर है। आप मुझे वापस ले जाने की मंशा से यहाँ कभी नहीं आ सकते क्योंकि यह परिवार और परिवारजन मेरे है, उन्हें छोड़कर मैं कभी वापिस नहीं आ सकती। यहाँ से मेरी अर्थी ही उठेगी.. सुनैना ने यह कहकर परिवार के प्रति लगाव और कर्तव्य के बारे में अपने पिता से कहा। 

उसकी ये बातें सुन सभी मौन रहें , सुंदरराम खुद को लज्जित- सा महसूस करने लगे। एक पिता का दायित्व होता है कि वह अपनी बेटी को अच्छे परिवार में दे और आज उन्हें ही तोड़ने चले आये थे। 


सर के ऊपर गहरी चोटें आने के कारण दिपक की स्मृतियाँ मिट चुकी थी किन्तु सुनैना की सेवा और दवाई खाने के कारण वह धीरे- धीरे लौट रहे थे। जब दिपक ने क्षितिज की तरफ देखा तो स्मृतिपटल खुलने लगा, और दिपक को वह शाम याद आ गयी। 


उस शाम जब अपनी पत्नी सुनैना का फोटो दिपक देख रहा था तो उस वक्त ये शख्स उसकी दुकान पर बैठा सिगरेट का कश लगा रहा था। मेरे मन में अपनी पत्नी के प्रति सम्मान था लेकिन इसकी एक बात ने और कुछ तस्वीरें देख कर सब मिट्टी में मिल गया। पहली पत्नी के जाने का दु: ख तथा दूसरी औरत का चरित्र, इन दो वजह से मुझे मेरा मन शराब के पास ले गया। मैंने बहुत शराब पी, इतनी की मैं वही बेहोश हो गया। 

दिपक की बातें खत्म होते ही क्षितिज ने कहा, उसके बाद मैंने ही उसे ऐसा इंजेक्शन दिया की यह जीवित तो रहे लेकिन किसी मृत व्यक्ति की तरह , जिसमें मेरी सहायता मेरे सहयोगी डॉक्टर मित्र ने की। मैं अपनी योजना में सफल रहा और सुनैना को अपनी तरफ लाने का प्रयत्न जारी रखें। 


यह कहानी सुनकर सुनैना को बहुत गुस्सा आ रहा था। सोचा कि क्षितिज को पुलिस के हवाले कर दे पर जब क्षितिज ने अपनी गलती स्वीकार कर ली तो उसने स्वयं को शांत रखा और वह सदैव के क्षितिज के उस पार निकल गया। उसने वादा भी किया की वह कभी उनके बीच नहीं आयेगा। सुंदरराम और दयानन्द जी के परिवारों के बीच की गलतफहमियां दूर हो गई। सुनैना और दिपक ने अपनी नई जिंदगी की एक उज्ज्वल भविष्य की कामना रखते हुए नयी शुरुआत की। दोनों ने ही एकमत होकर बच्चे को किसी अनाथालय से गोद ले लिया। दयानन्द और देवकी भी उनके इस फैसले से काफी खुश और आनंदित है। 


समाप्त। 

            






Rate this content
Log in

Similar hindi story from Drama