मैं नहीं होने दूंगी
मैं नहीं होने दूंगी
चन्दा की सेहत पिछले दो सालों से कुछ नरम हो गई थी। जबसे विवाह कर अपने ससुराल आयी थी तभी से सारी जिम्मेदारी उसी पर रही। उसका पति घर का एकलौता चिराग था जिसकी शादी के कुछ सालों बाद ही एक दुर्घटना में मौत हो गई थी, जब पति की मौत हुई तो चन्दा को पहले दो लड़कियाँ एक दो साल की और दूसरी डेढ़ साल की थी, तीसरी पेट में ही थी तभी सरला के पिता ने इस दुनिया को अलविदा कर दिया।
चन्दा तभी से बिल्कुल अकेली सी हो गई। सास बार बार ये कहकर ताने मारती कि तेरे कारण मेरा बेटा मर गया, तूने ही मेरे ललुआ को खाया है। चन्दा सबकुछ चुपचाप सी सुन लेती, वह बेचारी बोलती भी तो क्या? बेचारी की उम्र भी क्या थी? उसे बार - बार खयाल आता कि मैंने क्या किया है? मेरी वजह से कैसे वह मर गया? जब वो मरे तो मैं यहाँ थी भी नहीं तो यह कैसा दोष? ऐसे विचित्र से ख्याल उसके मन में आते लेकिन शांत कभी नहीं होता यह विचारों का ज्वार - भाटा। दिन की शुरुआत सास के तानों से और अंत अनगिनत सवालों के बोझ मन में लेकर। चन्दा को तो हमेशा लगता कि उनके बजाय मैं मर जाती तो अच्छा होता, लेकिन दूसरे ही क्षण अपनी बच्चियों का चेहरा सामने आ जाता।
चन्दा ने देखा था कि जब एक नववधू मर जाती तो कुछ महीने भर दु: ख होता है और फिर सब भूल जाते हैं किन्तु जब कभी लड़का मर जाये तो लड़की का जीवन दुश्वार सा कर देते हैं यह लोग। यह नियति का अजीब खेल है लड़की के लिए अलग और लड़के लिए अलग न्याय।
चन्दा कुछ और सोचती उतने में आशा अपना ब्लाऊज सिलवाने चन्दा के पास आ गयी।
क्या हुआ चन्दा? कहाँ खोई हुई हो? सेहत तो अच्छी है ना.. आशा ने उसे गहरी सोच में डूबा देखकर प्रश्न किया।
अरे, बस कुछ नहीं जरा ऐसे ही सोच में पड़ गयी थी.. चन्दा ने हवा में कह दिया।
अच्छा, बुरा न मानो तो एक बात कहूँ।
हाँ, बता ना, क्या बात है?
देख चन्दा अब तेरी भी उम्र हो गई, कबतक तुम यह सिलाई करती रहोगी? तेरी बड़ी बेटी ने दसवीं का इम्तिहान पास कर लिया तो क्यों न उसका विवाह कर देती हो? .. कुछ सकुचाते हुए आशा ने अपने मन की बात कही।
आशा, यह तुम कहती हो। तुम जानती हो कि ऐसा करने से क्या हो सकता है? जो मैंने भोगा और झेला है वह मैं अपनी बेटी के विषय में नहीं कर सकती.. अपना नकार चन्दा ने साफ शब्दों में कह दिया।
चन्दा तुम्हारे साथ जो हुआ वो एक हादसा था तो तुम उसे भूल जाओ वो ही बेहतर है। मेरे रिश्ते में एक अच्छा लड़का है, परिवार वाले भी ऊॅंचे खयालात वाले है। अगर एक बार लड़की वहाँ चली गई तो उसकी किस्मत बदल जायेगी। देख तेरी उम्र भी पैंतीस तक होगी पर काम के बोझ तले बुढ़िया सी लगने लगी हो, कुछ अनहोनी हो गयी तो तेरी बेटियां कहाँ मारी - मारी घूमती फिरेगी.. आशा इतना कहकर अपने घर चली गई।
चन्दा ने खुद को अपने आईने में देखा तो जो आशा ने कहा वो सच निकला। माथे पर झुर्रियों ने दस्तक दे दी, हाथ भी कुछ नर्म पड़ गए और पैरों में कहाँ दम था। फिर बेजान सी मशीन का पहिया घूमाती जा रही थी।
सच ही तो कहती है कि अब मैं बूढ़ी हो गई तो क्यों मैं अपनी लड़की की शादी कर दूं। यह ख्याल मन में आते ही उसे अपने प्रसव पीड़ा के दिन याद आ गए। उसने एक बार फिर एक लड़की को जन्म दिया तो सास - ससुर ने उसे गिराने के लिए कह दिया पर चन्दा ने उन्हें रोक लिया और नन्ही को अपने गले से लगा लिया। कुछ दिनों बाद सास - ससुर ने चन्दा को अपने तीनों लड़कियों के साथ घर से बाहर निकाल दिया, तभी चन्दा ने मन में ठान लिया किया कि कुछ भी हो जाये पर मैं अपनी बच्चियों का विवाह कम उम्र में नहीं करूँगी। यह उसकी खायी हुई कसम एकाएक ओठों पर आ गयी। चन्दा में एक अजीब सा साहस आ गया और एक नई ऊर्जा के साथ उसने अपना काम संभाल लिया।
वह निरंतर बिना थके बिना हारे अपना काम अनवरत करती रही। समय का पहिया तेजी से चलता रहा। चन्दा की ही मेहनत थी कि आज उसकी तीनों बेटियां पढ़- लिखकर बड़ी अफसर बन गयी। उसे अपने निर्णय पर विश्वास था नहीं तो अगर वो आशा या बाकी महिलाओं की बातों में आ जाती तो अपनी बेटियों को सबसे बड़ी जगह शायद ही देख पाती।
सच बालिका विवाह कर देने के कारण कितनी ही होनहार छात्रा अपना जीवन बर्बाद कर देती होगी। चन्दा को आज जो सुख प्राप्त हुआ वो उसकी मेहनत और विश्वास की जीत थी।
