अनसुलझी मुस्कान
अनसुलझी मुस्कान
दिनकर अपनी आदत के अनुसार कमरे में बैठा- बैठा चाय की चुस्कियां लेने लगा, एक नज़र अखबार में गड़ाए रखी थी तो दूसरी अपने बच्चे की ओर बार - बार देखता। कितना असहाय था वह चाहकर भी अपने बच्चे को ठीक नहीं कर सकता।
मैं जैसे अंदर बाहर आ जा सकता हूँ जब चाहे तब, लेकिन मेरा लाल एक जगह से हिल भी नहीं सकता किसी के सहारे के बिना। बच्चों को देखकर मन नहीं करता होगा उसका खेलने- हंसने का, बोलने- चलने का। यह मेरा वैभव किस काम का जो मैं बच्चे को बचपना ना दे सकता, वह ना ठीक से बोल सकता है न चल फिर सकता है। बस सुबह होते ही खिड़की के पास जाकर बैठ जाता और मन ही मन कुढ़ते रहता, संगिनी से देखा नहीं जाता लेकिन वह कर भी क्या कर सकती थी। उसके हाथों में था भी नहीं कुछ सिवा दुलार और प्यार के।
संगिनी के रहते लाल हर पल खुश रहता पर न जाने क्यों उसकी खुशी भगवान से देखी नहीं गयी और उसे बेसहारा कर संगिनी दुनिया से अलविदा हो गई। मुझे आज भी याद आता है उसका हंसता खिला हुआ चेहरा किन्तु जबसे वह दूर हुई लाल की खुशियाँ भी काफूर हो गई। मैं भी नहीं ठहर सकता न तेरे पास अगर मैं बाहर न गया तो कैसे घर चल सकता है।
यही सोच सोचकर दिनकर जड़ हो जाता और कोने में जाकर अपने आंसुओं का वेग रोक न पाता।
