अधिकार
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शाम हो चुकी थी। मैंने अपने कमरे की खिड़की खोली और पास वाले शर्मा अंकल के बरामदे की ओर देखा। उनके बरामदे में एक पिजड़ा था जिसमें बुलबुल बंद थी। वह पिंजरे से बाहर निकलने को बेताब थी और बार-बार आकाश को ललचायी नजरों से देख रही थी। मुझे उस पर तरस आ गया क्योंकि मेरी हालत भी काफी कुछ ऐसी ही थी। मुझे मेरे पिता के घर नजर बंद करके रखा गया था। और आप जब इसका कारण जानेंगे तो मुझे चरित्रहीन ही मानेंगे। चलिए मैं आपको बता ही देती हूं। मेरा अपराध यह है कि शादीशुदा होने के बावजूद भी मैंने एक अन्य पुरुष से प्रेम किया। मुझे पता है आप क्या सोच रहे होंगे। लेकिन मुझ पर कोई भी आरोप लगाने से पहले मेरी कहानी तो सुन लीजिए।
शायद आप समझ सके मैंने ऐसा क्यों किया।
मेरे पिताजी का बहुत बड़ा कारोबार था। वे कपड़ा बनाने वाले कई सारे मिलों के मालिक थे। मेरा बचपन एक धनी परिवार में बहुत सारी सुख सुविधाओं के बीच बीता था। इकलौती बेटी होने के कारण पिताजी ने मुझे बड़े लाड प्यार से पाला था। कुछ वर्ष पूर्व, मेरे पिताजी को व्यापार में बहुत बड़ा नुकसान हुआ और उनकी सारी संपत्ति डूब गई। मैं अब बड़ी हो चुकी थी और मेरे पिताजी को मेरे विवाह की चिंता होने लगी थी। किंतु अब वे पहले जैसे रईस नहीं रहे थे और मुंह मांगा दहेज देने की स्थिति में नहीं थे। ईश्वर ने मुझे विद्या, रूप और गुण का आशीर्वाद दिया था इसलिए मेरे लिए कईं अच्छे घरों से रिश्ते आए थे। जब उन्होंने देखा कि मेरे पिताजी उनकी दहेज की मांग को पूरा नहीं कर पाएंगे तो उन सब ने हम से मुंह मोड़ लिया। हालांकि अब धन तो नहीं रहा पर फिर भी हमारे परिवार के गिनती ऊंचे खानदानों में ही होती थी।
इसीलिए पिताजी मेरा विवाह किसी रईस परिवार मैं ही कराना चाहते थे। वह ऐसे परिवार की तलाश मे
ं थे जो दहेज की मांग बिल्कुल ना करें। उन्हें ऐसा घर भी मिला और मुझे ऐसा वर भी। लेकिन मेरे पति का यह पुनर्विवाह था। उनकी पत्नी का देहांत हो चुका था और उनके दो बच्चे भी थे। विवाह के उपरांत भी वह अपनी पहली पत्नी से ही प्रेम करते रहें और मुझे कभी अपना नहीं सके। मैं तो केवल उनकी एक जरूरत थी। उन्होंने मुझे कभी पत्नी का दर्जा नहीं दिया। विवाहित होते हुए भी मैं अकेलापन महसूस करने लगी।
अपने एकांत से परेशान होकर मैंने एक जगह नौकरी कर ली। वही मेरी मुलाकात विवेक से हुई। उसने मेरे सूने जीवन में प्यार का प्रकाश भर दीया। विवेक का प्यार सच्चा था और वह तो मुझे स्वीकार करने के लिए भी तैयार था। लेकिन मैं तो अपनी पत्नी धर्म से बंधी हुई थी ना। जब लोगों को इस बात का पता चला तो मुझे यहां अपने पिताजी के घर पर लाकर नजर बंद करके रख लिया गया ताकि मैं विवेक को भूल जाऊं। सिर्फ इतना ही नहीं, मुझे कुलटा और चरित्रहीन की उपाधि भी दी गई। मेरा किसी और पुरुष से प्यार करना समाज की नज़रों में घोर पाप है। लेकिन मेरे पति ने जो किया क्या वो सही था ? मुझसे विवाह करने के उपरांत भी कभी पत्नी का स्थान उन्होंने मुझे नहीं दिया। अगर मुझे मेरे पति का प्रेम मुझे मिला होता तो कोई और पुरुष मेरे मन में जगह ही नहीं बना पता। फिर ये समाज केवल मुझे ही दोष क्यों देता है ? क्या इसमें मेरे पति की कोई गलती नहीं है ? मुझसे शादी के बंधन में बँधने के बावजूद भी वो अपनी पहली पत्नी से ही प्यार करते है। क्या इसे आप मेरे साथ किया गया अन्याय नहीं समझते ? क्यों समाज हमेशा औरत से ही अच्छे चरित्र का प्रमाण मांगता है ? आज तक किसी ने कभी किसी पुरुष की अग्नि परीक्षा क्यों नहीं ली ? जब तक मुझे इन सवालों का जवाब नहीं मिल जाता मैं खुद को दोषी नहीं मान सकती।