अभ्यास का महत्व
अभ्यास का महत्व
प्राचीन समय की बात है बच्चों को विध्याध्यान के लिए गुरु के आश्रम मे रहकर उनकी सेवा करते हुए विध्याध्यन करना पड़ता था। इसी प्रकार जब वरदराज नामक बालक पाँच वर्ष का हो गया तब उसे विध्याध्यन के लिये गुरु के पास आश्रम भेज दिया गया।। वरदराज मंदबुद्धि था। उसे सभी शिष्य मुर्खराज व बुध्दुराज कहकर उसका मज़ाक उड़ाते थे।। वह एक साल की पढ़ाई तीन तीन साल करता था। उसके सहपाठी आगे बढ़ जाते थे। उसकी यह स्थिति देख गुरु चिंतित हुए और उसे बुलाकर कहा पढ़ाई तुम्हारे बस की बात नहीं, घर जाकर अपने पिता के कामों में हाथ बटाओ और उनका कारोबार संभालो । यह बात सुन वरदराज बहुत चिंतित हुआ और भारी मन से वह अपने घर जाने लगा। उसकी गुरु माँ ने उसे रास्ते में खाने के लिए सत्तु दिया था। वह भारी और उदास मन से सोचते हुए जा रहा था कि लोग क्या कहेंगे। उसके पिता का नाम खराब हो जाएगा. उसके पिता सर उठाकर नहीं चल पायेंगे। इस प्रकार उसके मन में कई बातें घर कर रही थी। दोपहर हो चुकी थी। वरदराज को भूख और प्यास लगी थी। वह एक कुएँ के पास जाकर बैठ जाता है और सत्तु खाकर पेट भर पानी पिया। अचानक उसकी निगाह कुएँ के पास पड़े निशान पर पड़ी। उन निशानों से वह अभ्यास करने की प्रेरणा पाकर गुरु के आश्रम वापस लौट आया. गुरु उसे वापस लौटा देख उससे कहते है कि वह घर क्यों नहीं गया। तब वरदराज कुएँ के पास वाले निशानों से वह किस प्रकार अभ्यास करने की प्रेरणा पाई इन बातों को वह अपने गुरु को बताने पर वे उसके इस दृढ़ निश्चय से खुश होकर मन लगाकर पढने की इच्छा को प्रकट करते है। बस क्या था वह अपनी नींद, भूख, प्यास आदि सब भुलाकर पढ़ाई मे मन लगाने लगा। रात भर पढ़ाई करता और सवेरे गुरु को अपना पाठ सुनाता। इस प्रकार वह अपनी लगन व परिश्रम से पढ़ाई मे अव्वल रहने लगा। इस प्रकार वह खूब परिश्रम कर आगे बढ़ने लगा । बड़ा होकर वह महान विद्वान बना और पाणिनी व्याकरण पर टिका कर डाला। इस प्रकार वह अपने परिश्रम व लगन से बुद्धुराज से विद्वान बन गया।