परिवर्तन

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परिवर्तन   "अच्छी हो क्या?" सामने से आने वाले व्यक्ति से एक पल के लिए रुक कर उसे मर्यादा पूर्वक बुलाया जाय पराया समझकर या फिर अपनेपन से इस उलझन में था ही कि अनायास ही शंतन के मुख से अपनेपन की झलक उमड पडी एक वचन मे। इस प्रश्न से उसके मन की स्थिति कुछ अजीबोगरीब थी। उलझनों मे डूबी, सारा शरीर पसीने से भीग गया था। वह अपने पल्लू से चेहरे पर पसीना पोछते हुए, उससे पूछे गए प्रश्न का उत्तर कैसे दे। इस असमंजस से उसने "हाँ" मे सर हिलाया ही था कि शंतन ने दुसरा प्रश्न किया। "कहाँ रहती हो?" अभी पहले प्रश्न का ही समधान ठीक से ही नहीं दिया तभी दूसरा प्रश्न उसके होठों पर हल्की मुस्कान आई।। उसने मर्यादा पूर्वक उत्तर दिया "बेंगलुर" मे।। मुरुडेश्वर मंदिर से बाहर आकर पीछे पलटकर एक बार भगवान महादेव को हृदयपूर्वक प्रणाम करने लगा तो अचानक से शंतन को वह सामने से आती हुई दिखाई दी। वे दोनों आगे बढे प्रसाद लेने के लिए। दोनों के बीच की चुप्पी को तोडते हुए वह शंतन से पूछी "आप कहाँ रहते हो?" उसके उत्तर की प्रतीक्षा किएं बिना ही फिर से प्रश्न किया "क्या आप यही रहते हो"। वह प्रश्न सुनकर शंतन उसकी ओर देखा लेकिन उसकी निगाह सामने रास्ते पर थी। लेकिन दोनों के मन में अजीब सी उलझन व कशमकश थ। शंतन ने उत्तर दिया"नहीं चेन्नई में ही" कुछ देर तक दोनों के बीच मौन ताडंव कर रहा था। सामने होटल के दिखते ही शंतन ने "काँफी पिए" कहकर दोनों साथ गए। कोने वाली जगह देख दोनों आमने सामने की कुर्सी पर बैठ गए। शंतन उसे निहार रहा था। वही कद काठी साधा-सिधा पहनाव, गले में चेन साथ में काली पोत जिसमें कटडायमंड का लाकेट। जब उसकी दृष्टि उसके चेहरे पर पडी तब उसे लगा कि उसके चेहरे पर पहले वाली रौनक नहीं थी।। चेहरे पर उदासी के भाव के साथ फिके रंग की झलक साफ साफ नजर आ रही थी। आर्डर प्लीज की आवाज से वह अपने ख्यालों की दुनिया से बाहर आया। उसे तिखा व चटपटा दोसा पसंद था, वही आर्डर किया। उसके इन बातों को सून वह उसे एक क्षण के लिए तीक्ष्ण भाव से देखी।। इन सब से वह अनजान सारे होटल पर एक नजर दौडाई। लेकिन उसकी नजरें शंतन पर थी । वह उसे गौर से देख रही थी। उसने पाया कि उसके चेहरे पर पहली वाली चमक नहीं थी। उसका चेहरा फीका पड गया था, बाकि उसमें कोई बदलाव नहीं था। वहीं रहन सहन, लाइट कलर शर्ट, डार्क कलर पैंट, हाथ में सोने की पट्टी वाली घडी। उसी समय वेटर दोसा लेकर आया। उसे खाते ही शंतन की आँखों में पानी की हिलौर उठी। उसे उस अवस्था में देख उसके चेहरे पर हँसी आई पर उसने अपनी हँसी को छुपा दिया। चेहरे पर आने नहीं दिया। काफी गरमा गरम पिते ही जीभ जलकर उसके आँखों में पानी का उभार उमड पडा। वह अपने रुमाल से अपने चेहरे पर उभरे हँसी को छूपा लिया।।  जब वह बिल के पैसे देने लगी तो शंतन ने उसे रोककर बिल के पैसे दिए। दोनों साथ चल रहे थे लेकिन दोनों में एक अजीब सी कशमकश के साथ दोनों के मन को चुभने वाली शांति थी। कौन बोले क्या बोले सामने 5-6 गज की दूरी पर बस स्टाप था।। कौन किसे रोके, कौन किसे रहने को कहे यही दोनों के मन में अजीब सी कशमकश थी कि शंतन ने पूछा यहाँ से चामुंडी हिल्स कितनी दूरी पर है। उसने कहा कि यही कोई 20-25 मिनट का रास्ता। अभी शंतन की विमान के समय में 15 घंटे बचे थे। सामने बस वाला चिल्ला रहा था, चामुंडी हिल्स - चामुंडी हिल्स बस वह उसमें बैठ गया खिडकी वाली सिट देखकर।। थोड़ी ही देर में वह भी उसी बस में आगे की सिट पर बैठ गई।। कभी-कभी दोनों की नजरें मिलने लगी और दोनों के मन में अजीब सी कशमकश उठने लगी। उसकी साफ छवि धूंधली होने लगी। शंतन समझा कि उसकी मंजिल भी शायद रास्ते में होगी। उसने दोनों के लिए टिकट खरीदकर शंतन को टिकट न खरीदने का इशारा किया। होटल का बिल मैंने दिया और बस टिकट उसने खरीदा हिसाब बराबर हो गया। उसके मूँख पर हलकी हँसी छलक पडी। दोनों भी अपने मन में उठते तुफानो व उलझनों के भवंडर से निकलने का प्रयास कर रहे थे।। कई सवाल पिछली जिंदगी की कडवी छाया से बाहर निकलने का दोनों जितना प्रयास करते उतना वे दबते जाते। इस प्रकार दोनों कितनी देर तक सफर किया इसका पता नहीं चला। जब कंडक्टर ने जोर से चिल्लाया "चामुंडेश्वरी हिल्स" बस दोनों अपनी दुनिया में आ गए और बस से उतर गए। उसे अपने पीछे आते देख उसने पूछा "क्या तुम्हारा घर यही है" उसने उत्तर दिया"नहीं, यहाँ से दूर है। मैंने चामुंडी हिल्स अभी तक नहीं देखा इसलिए। दोनों चलकर हिल्स पर आ गए। दोनों के बीच शांति छाई थी। वहाँ के सुंदर दृश्य को दोनों भी निहार रहे थे। दोनों का मन और निगाह एक ऐसे पेड़ पर पडी जो साथ साथ थे और हवा के झोंकों से ऐसा प्रतित हो रहा था कि वे दोनों आपस में प्रेम से बातें कर रहे हो। अपनी विरह वेदना को प्रकट कर रहे हो, नोक झोक चल रही हो दोनों एक दूसरे के साथ छेड़ खानी कर रहे हो। उसे देख वह सहसा बेचैन हो उठा. वह सोचने लगा कि अभी भी उसके प्रति प्रेम है नहीं तो वह उसके साथ यहाँ तक क्यों आती। देखकर अनदेखा कर चली जा सकती थी लेकिन वैसा नहीं किया। बिना झीझके उसके मूख पर एक अपनेपन के भाव को साथ लिए उसके साथ बिना कुछ कहें वह यहाँ तक चली आई यह उसके प्रति प्रेम नहीं तो और क्या है। वह समझ गई कि वह कुछ कहना चाहता है लेकिन कह नहीं पा रहा है। उसके इस कशमकश को देखकर वह ही बोल पडी "घर मे सब कैसे है?" " "सब ठीक है। माँ की तबीयत को लेकर ही कुछ चिंता है। इस बीच उनके घूटनों मे दर्द अधिक बढ गया है। साथ में बी.पी. भी बढ गया है।" दिल खोलकर उसने जवाब दिया। वह उसकी माँ के स्वभाव से परिचित थी। सबसे झगड़ा मोल ले लेती थी। दूसरे क्या सोचेंगे इससे माँ को कोई मतलब नहीं था। वह कहना चहती थी लेकिन चूप रही। "तुम्हें तो माँ के बारे मे मालूम है उनके स्वभाव से परिचित हो। ऐसा कहते ही उसने शंतन की ओर तीक्ष्ण नजरों से देखा। वह उस नजर का सामना नहीं कर पाया और अपनी आँखें झूका ली। कुछ देर तक दोनों में चूप्पी थी। "तुम वही रहोगी समझा" कुछ धीमी आवाज में कहा। वहाँ रहकर क्या करती, जब कोई अपना रहा ही नहीं। वहाँ पर मैं दो महीने थी क्या आप मुझसे मिलने आए,"नहीं" क्या आपका मन एक बार भी मिलने को नहीं किया। आप मुझसे मिलने आवोगे ऐसी आशा थी। एक बार मिलने आते तो शायद हमारी जिंदगी कुछ बदल सी जाती। शायद आज यह दिन देखने को न मिलता। शंतन उसका उत्तर न दे सका। सच ही तो बोल रही थी। अहंकार ही तो भरा हुआ था। उसी का परिणाम वह भोग रहा था। "ठीक है मैं गलत थी। मैंने ही गलतियाँ की है, लेकिन आप तो समझदार है। फिर आप ने क्या किया। क्या आपका कर्तव्य नहीं था कि आप समस्या को सूलझा सके" कुछ देर रूककर फिर से कहने लगी। "आपने कहा कि मैं बात का बतंगड बना रही हूँ। समस्या को सुलझाने के बदले उसे उलझा रही हूँ। क्या आपने कभी समस्या को समझकर सुलझाने का प्रयास किया।" उसकी आवाज़ में गंभीरता के साथ सभ्यता भी थी और हलकापन भी था।। वह बहुत उदास था उसने कभी सिक्के के दूसरे पहलू को कभी देखने की इच्छा प्रकट नहीं की थी। फिर से बोल उठी कि "तुमने तो शादी की है लेकिन अभी तक बच्चा क्यों नहीं दिया। क्या बच्चे चाहती हो या फिर अपनी आजादी मे रुकावट न बने इसलिये कही कोई नुस्खा तो नहीं अपना रही हो।" इस बात पर वह झट से उसकी ओर देखा। वह अपने माँ के इस व्यवहार से अनजान था। उसने भी उसकी ओर देखा। इसका अर्थ था हाँ जो मैं कह रही हूँ सच है। कुछ समय पश्चात वह कहने लगी "यही कारण था कि मैं माँ पर चिल्ला उठी। जब वह अपना बैग लिए घर से निकल पडी तो मैंने कहा यह तुम्हारा घर है तुम क्यों जाआओगी, मैं ही चली जाती हूँ और मैं निकल पडी, तभी तुम घर आए और माजरा क्या था यह जानने के बदले मुझे जाते हुए देखा पर रोका नहीं। मैं अपने घर न जाकर अपनी सहेली के पास रही। फिर तुमने यह कोशिश भी नहीं की कि मैं कहाँ हूँ और मुझे वापस घर बूलाने का प्रयास भी नहीं किया। वहाँ रह कर जख्मी यादों को कूरेदना ठीक नहीं समझा और वहाँ से निकल पडी। "  कुछ देर बाद शंतन ने कहना आरंभ किया "मैं समझा तुम घुस्से मे हो, जब घुस्सा शांत हो जाएगा अपने आप घर आजाओगी।" वह एक तीक्ष्ण नजरों से उसे घूरने लगी। तुम्हारी सहेली से पता चला कि तुम्हारा तबादला यहाँ हुआ है।"कुछ समय तक दोनों में चुप्पी थी. फिर से शंतन ने ही कहा "गायत्री छोडो इन सब बातों को अब घर चलों। तुम्हारे जाने के बाद माँ के स्वभाव में भी बदलाव आया है और वह अपनी इस स्थिति के लिए अपने आप को दोषी मान रही है और अपने ही हाथों से अपने स्वास्थ्य को बिगाड़ रही हैं। हम दोनों के बीच की दूरी का कारण अपने आप को समझ रही है। यही कारण है कि उनका बि. पी. बढ गया है। दिन ब दिन उनका स्वास्थ्य बिगड़ रहा है। बार बार यही कहती है कि वह तो अच्छी लडकी थी। मैंने ही तुम्हारे फूलों से भी कोमल बंधन में फूट डाली है। दोनों के बीच दूरी बढऩे का कारण मैं ही हूँ। जा  जाकर उसे ले आ। वह स्वाभिमानी लडकी है। उसके स्वाभिमान को ठेस पहुंची है और दिन भर रोती रहती है। अब बस चलों गायत्री। हम अपने सपनों की दुनिया को प्रेम से सजायेंगे।। मैं फिर तुम्हें शिकायत का अवसर नहीं दूँगा। मैं ने तुमसे झूठ कहा है। मुझे यहाँ कोई काम नही है। केवल मैं तुम्हें लेने आया हूँ। इतना सूनकर गायत्री शंतन के कंधे पर सर रख दिया। उसके आँसू रूकने का नाम नहीं ले रहे थे। उसे इस बात का भी पता नहीं था कि वे खुशी के आँसू है या दूख के। बस आँसू बह रहे थे। शंतन ने उसे प्रेम से अपनी ओर खींच लिया और गले लगा लिया। दोनों का यह आलिंगन बहुत कुछ कह रहा था।


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