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shivendra 'आकाश'

Abstract

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shivendra 'आकाश'

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आत्मसमर्पण

आत्मसमर्पण

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आठ माह भी सही से नही बीते थे कि शीला के पतिदेव धनराज का रवैया शीला के प्रति बदल गया है, छोटी छोटी बातों पर ताने मरना, तुम्हे तो कुछ घर सम्हालना नही आता,तुमसे शादी करके तो मैं जैसे लूट गया हूँ। धनराज की कपड़ो की दुकान है उसे दुकान के लिये निकलना था परन्तु दर्पण के पास रखी हुई कंघी नही मिलने से गुस्से में चिल्लाता हुआ शीला से कहता है कि कहा मर गई, कंघी भी खा गई क्या? मुझे भी खा लेना एक दिन? कोई भी समान अपनी जगह पर नही मिलता। 

शीला दबे स्वर में बोली कि वही ड्रेसिंग टेविल के खाने में ही तो रखी है।

धनराज ने चिढ़ते हुए कुछ भी जबाब नही दिया और दुकान की ओर चल दिया। उसके चेहरे पर कुछ चिंतन के भाव प्रकट दिखाई दे रहे थे,जैसे वह किसी बात को लेकर परेशान हो रहा है।


शीला ने कमरे में आकर देखा कि धनराज ने आज नाश्ता भी नही किया, वही टेविल पर पड़ा हुआ है।वह सोच में डूबी आज क्या हो गया,पहले तो कभी ऐसा रवैया नही अपनाया,कुछ दिनों से मेरे संग ऐसा बर्ताब बात बात पर लड़ने को तैयार हो जाना,अभी परसो के दिन  रोटी थोड़ी सी जल गई थी तो पूरे घर को ही सिर पर उठा लिया था,तुम्हे तो रोटी बनाना नही आता,क्या बनाती हो,इतनी डाट तो उसने कभी आपने पिता और ससुर से नही खाई थी। बात बात पर खिसियाना धनराज का उसे न ग्वार गुजरता पर फिर भी घर की लाज रखने के लिये और पति ही तो है काम के बोझ और ग्राहकों की बातों से मन कभी कभी चिंताग्रस्त हो जाता है।यही सोचकर वह आसुओ को पोछकर, बाहर चली जाती हैं। 


उसका मन अनेक द्वंदो से जूझ रहा था, वह कभी नही चाहती थी कि उसकी जबरदस्ती शादी धनराज से हो क्योंकि वह स्वयं किसी ओर से प्रेम करती थी मगर आपने पिता से उसके कहने की इतनी हिम्मत नही थी कि वह उनके फैसले को चुनोती दे। अपने उस प्रेम को मनके किसी कोने में दबा कर अपने पति को सर्वष्य मान लेती हैं। आखिर लड़कियों की झोली में कम ही अधिकार होते है अपने मनका करने के।

अगर वह अपने मन का करती भी तो उसके सामने उसके कारण उत्पन्न होने वाले परिणाम को सोचकर की वैसे ही तो उसके पिता हार्ट पेशेंट हैं। और जो लड़किया लवमैरिज से विवाह में बंधी है वो कुछ भाग्य लेकर ही आती हैं। 


जब उसकी शादी यहाँ धनराज से हुई तो उसने अपने उस प्रेम को तिलांजली देकर  भुला दिया था, कभी भी धनराज को और परिवार को यह आभास नही होने दिया कि उसकी शादी यहा उसकी मर्जी से नही हुई है। उसने उसी दिन यह निश्चय कर लिया था कि अब मेरे हर कार्य से इस परिवार और पति की प्रतिष्ठा जुड़ी हुई है,वह कोई भी ऐसा कदम नही उठाएगी की इस परिवार पर आंच आवे।


शीला हाथ मे झोला लिये बाजार में दुकान की ओर चली जिसमे वह धनराज के लिये खाना ले जा रही थी, यौवन का रूप मुख मंडल पर झलक रहा है, हल्का सवाल रंग, बड़ी बड़ी आँखे किसी झील की भांति सजल चमकती सी मालूम पड़ती है, ठुड्डी पर अंकित तिल चेहरे की सुंदरता को बढ़ाने का प्रयास करता है, शरीर का गठन सुव्यवस्थित एवं सुडौल दिखाई देता है।

धनराज ने शीला को दुकान की ओर आता देख आखो की त्योरियां चढ़ गई, शीला दुकान में अंदर आती है तो धनराज बिना किसी भूमिका के अचानक पूछाता है कि यहा क्यो आई हो? क्या काम है? ये दोनों प्रश्न एक सांस में पूछ डालता हैं।


आप आज नाश्ता भी करके नही आये और भोजन करने के लिये भी घर नही आये तो सोचा कि मैं ही दे आती हूँ। शीला ने धनराज की ओर सहृदयता से देखते हुए बोला। 


धनराज दाँतो को बल देते हुए खीझता हुआ बोला-एक दिन न खाऊ तो मर न जाऊँगा,और मेरी इतनी सेवा करने की कोई जरूरत नही है, और भेजना था तो किसी ओर के हाथों भेज देतीं। तुम्हे आने की कोई जरूरत क्या थी।

तुम्हे तो बस बहाना चाहिये बाहर घूमने का,अपनी रूपसुन्दरता का दुनियाभर में डंका बजना। 


शीला के लिये ये शब्द काटो की भांति ह्रदय में चुभ रहे थे,मानो यह बात किसी ओर ने कही होती तो वह  उसे वही सबक सीखा देती परन्तु उसके लिये ये विश्वास करना  कठिन था कि उसका आदमी ही दुनिया की तरह उससे ऐसी बाते कह रहा है, भला दूसरा कोई कहता तो उसे सुनकर भी निकल देती की दुनिया तो हर कुछ बकती रहती परन्तु आज स्वयं अपना दामन यह बात कह रहा है जिसके साथ उसने पवित्रता के उन सात वचन लिये है, जिसके सुख में सुखी होने,दुख में दुखी होने के, उन बंधनो को उसने अपने शुद्ध अन्तःकरण से अपनाये थे। क्या वो अटल धुव्र तारा इसलिए ही दिखाया गया था कि ये तुम जिसके साथ सात भवर रचा रही हो उसी को प्रमाण देना होगा? 


शीला को अब सारी बाते समझ आ गई कि धनराज जो कभी उसे सती समझता था,आज उसी को  इन नजरो से देख रहा है, उसका जी चाहता कि धनराज को सबक सिखाऊँ पर क्या स्त्रीजाती के खिलाफ तो नही?,क्या आज भी समाज मे ऐसे मानसिकता के पुजारी है जो स्त्री पुरुष में भेद भाव रखते है, क्या स्त्री को आज भी उन्मुक्त गगन में विचरने की आजादी नही है? पुरुष के बराबर अधिकार पाना उसका भी हक़ है,उसका यह जन्म आधिकार है,पर फिर भी उसे पुरुषों की जूती ही क्यों समझा जाता है? जहाँ दुनिया मॉर्डन होने जा रही है वहाँ इन सीमित मानसिकता के प्राणियों से ग्रस्त लोगों से स्त्रियां के हृदय पर क्या बीतती होंगी, जो कुठाराघात उन्हें सहन करना पड़ता है उसे तो आप भूल जायें शीला अपने आप से मन मे बड़बड़ाती हुई सी बोली।


वह चाहती तो अभी थाने जाकर धनराज और उनके परिवार के ऊपर दहेज का दबाब बनाने के सम्वन्ध में अन्दर करबा सकती थी,क्योंकि आजकल इन अपराधों की खबरे लगातार सुनने को मिलती रहती हैं।परन्तु वह रिश्ता निभाना चाहती थी,आपना हक स्वयं हासिल करना चाहती है।


शाम के समय वह धनराज के आने का इंतजार कर ही रही थी की आने दो आज कितना भी गुस्सा और मारपीट करे मैं पीछे हठने वाली नही हूँ, आत्म स्वाभिमान भी कुछ होता है,

हमे सिर्फ घर का काम करने वाली और वासना का सामान समझते हैं। हम में भी कुछ अहसास, सम्मान और अधिकार पाने की लालसा होती है। अगर हम आज अपने लिए नही खड़े हुए तो हम में और उन अस्सी नब्वे के दशक वाली औरतो में क्या फर्क रह जायेगा। फिर हमारा इस इक्कीसवीं सदी के काल में क्या मिला?


धनराज घर लौटा तो शीला तैयार बैठी ही थी कि उसके मुख से एक शब्द निकले मैं सारे घर को सिर पर उठा लूँगी, धनराज ने खाना खाया और बिना कुछ बोले ही बाहर टहलने को निकल गया, और अचानक से दौड़ता हुआ घर की ओर आया और शीला से बोला कि "मैं तुम्हारा अपराधी हूँ शीला! मैंने तुम्हें बहुत कुछ भला बुरा कहा, पिछले दिनों जो भी कहा उसे भुला देना, मैंने तुम्हें भी शक की निगाहों से देखा। पिछले दिनों धंधे में भी घाटा लग रहा है, बाजार में सुस्ती छाई है जिससे कुछ खर्च निकलना मुश्किल हो रहा हैं।


शीला मौंन होकर सुनती जा रही है, बिल्कुल मौंन, टकटकी लगाए धनराज की ओर। उसके मन में बार बार हलचल हो रही है मैं माफ़ तो तुम्हे कर दूंगी किंतु किन्तु जो लांछन लगाए उनकी पीड़ा जो सही है उसका अंदाज तुम नही लगा सकतें। 

दूसरे ही क्षण विचार आता है कि मैं तो आज कुछ सुनने वाली नही थी! शीला ध्यान से उसकी बातें सुन रही हैं।


"शीला मैं एक बात कहना चाहता हूँ, अगर तुम्हें मुझ पर भरोसा न होतो मुझे जो सजा देना हो तो दे देना, चाहे मुझे नीच और अपराधी समझो तो वो अब तुम्हारे ऊपर हैं। 


"हा अ अ! बात तो बताओ पहले" शीला ने अपने मन के द्वंद्व के आवेश को अपनी धमनियों में छुपाते हुए शालीनता से बोली।

क्यों औरत इतनी आसानी से अपने स्त्रीत्व और नारीत्व की गरिमा को धारण कर लेती है, अपनी व्यथा को, अपमान को भूल समन्वय के उस नदी के दोनों कूलों(किनारों) की भांति 

बहती चली जाती है जिसमें कभी हवाओ के कारण बड़ी बड़ी लहरें उठती है, जो समय समय पर रौद्ररूप भी लेती है,

परंतु वही ठंडी हवा के झोंके, हल्की तरंगों की सिहरन मन को मोह लेती हैं।


धनराज अपने मन की परतों में दवे राज को शीला के सामने खोलता है, वह जो अशांति और आत्मद्वंद के वेग से लड़ रहा था उनसे बचने के लिए न जाने क्यों शीला के आंचल में छुपकर छुटकारा पाना चाह रहा था, उसे उसमे आशा की अंतिम किरण दिखाई दे रही थी और आत्मग्लानि का अंधकार भी। वह कहता है-

"कुछ दिनों पहले फेसबुक पर शालिनी नामक एक बहुत ही खूबसूरत और सुंदर लड़की  की फ्रेंड रिक्वेस्ट आई, मैंने उसे एक्सेप्ट कर ली। कुछ दिनों बाद हम दोनों में चैट होने लगी,  फिर नम्बर एक्सचेंज हुआ, दोनों में प्यार की मीठी मीठी बातें होंने लगी, मुझे मालूम भी नही चला कि मुझे कब उससे प्यार हो गया,  फिर एक दिन अचानक शाम के पांच बजे के आसपास मुझे शालिनी का फ़ोन आया उसने मुझे मिलने के लिए अपने फ्लैट पर बुलाया, मेरे पूछने पर की फ्लैट पर कौन कौन होगा तो उसने मुझसे कहा कि "मैं और मेरी छोटी बहन दोनों ही रहेंगे और उसने उसकी छोटी बहन को हम दोनों के बारे में सबकुछ बता दिया था। छोटी बहन ही बहुत जिद्द कर रही थी तुमसे मिलने की" मैंने सोचा कि शालिनी ने मुझे अपनी बहन से मिलवाने के लिये बुलाया है तो मैं उस दिन शाम को मिलने के लिए पहुँच गया। और कुछ भी समझो मगर मैं हूँ तो इंसान कुछ कामनाओ की इच्छा के कल्पना के कारण भी वहाँ चला गया। मैं तुमसे कुछ नही छुपाउँग शालिनी। 


आगे कहता है- 

शालिनी ने आकर गेट खोला और अंदर ले जाकर अपनी बहन से मिलवाया, कुछ देर हम लोगो मे बातें हुई।उसके  बाद में छोटी बहन काफी बनाकर लाई, काफी पीने के बाद मुझे कुछ भी होश न रहा, फिर शालिनी जैसा कहती गई मैं वैसा करता रहा मुझे कुछ भी ध्यान नही है कि मैंने क्या किया, जब मुझे होश आया तो पता चला वहाँ शालिनी और उसकी बहन के अलावा पांच और लोग थे, फिर उन सभी ने मिलकर मुझे पीटना शुरू कर दिया,जैसे तैसे मैं वहाँ से बच बचा कर  निकला तो दो दिन लॉज में रहकर मैंने अपना इलाज कराया। तभी मैने तुमसे काम से बाहर जाने का बहाना किया था। धनराज की आँखों मे आंसू आ जाते हैं।

गला भर आता हैं, आवाज भर्राने लगती हैं।


शालिनी अपने आँसुओ को छुपाती हुई धनराज को सहलाती है, फिर पूछती है कि आगे क्या हुआ? जिससे तुम इतने परेशान हो गए हो?


धनराज शीला की इस विनम्रता को देखते हुए बोला-

उसके बाद से शालिनी ने मुझे कुछ फोटोग्राफी/ बेडियोग्राफी भेजी जो अश्लीलतापरक तथा आपत्तिजनक स्थिति की ओर संकेत करती थी, उसने मुझे ब्लैकमेल करने शुरू कर दिया कि अगर मैंने उसे 50 लाख रुपये नही दिए तो उन्हें मेरे करीबियों और सोशल मीडिया साइट्स पर अपलोड कर देंगी, मैं उसी दिन से अवसाद में,उसी सोच में मर मर जीने लगा था कि मैं इतने सारे रुपये कहा से लाऊ, मैंने कर्ज ले लेकर 5 लाख रुपये से अधिक उसे कई किस्तो में दे चुका हूँ, मैंने उससे कई बार बताया कि मैं इससे ज्यादा रुपयों की व्यवस्था नही कर सकता। मुझे वह धमकी देती है की मुझे वह जान से मरवा डालेगी, मैं कई बार अपने आप को खत्म करने का प्रयास कर चुका हूँ परन्तु तुम्हारा ही चेहरा मुझे कभी मरने नही देता" धनराज फूट फूट कर शीला की गोद मे सिर रख रोने लगा, उसके हाथ पैरों ने जबाब देना बंद कर दिया था, वह कहता है कि तुम ही सो चाहो तो माफ करदो नही तो मैं स्वयं यह देह त्याग दूँगा। 

मेरा तुम पर इस प्रकार से गुस्सा करना, चिड़चिड़ाना मेरी आत्मा को स्वयं चीर देता था किंतु मैं मजबूर था,तुम्हे बताने का मैं साहस नही कर पाता था, मन मे कई तरह के प्रश्न जन्म लेते थे, मेरा मुझ पर भी बस नही है, अब तुम ही हो जो कर सकती हो,"धनराज की आँखों से आंसू नही रुक रहे थे तो वही शीला शांत हो आखों से बहती दरिया को चुप चाप हो धनराज की बातों को सुन रही थी, वह शांत मन से सोचती है उसे सारी बाते समझ आ गई थी और कुछ दिनों पहले उसने ऐसे एक गिरोह के बारे में भी खबर पड़ी थी की उस गिरोह ने कुछ पॉलिटिक्स के लोगो को अपना शिकार बनाया था, इसी बात को सोचकर उसने धनराज के संग थाने चलकर रिपोर्ट कराने का निश्चय किया जिससे कि उस गिरोह का पर्दा उठे और अपने सीने पर जो धनराज ने पत्थर रख लिया था उसका समाधान निकले।


धनराज सोचने लगा कि जिसको उसने इतना नीच और बुरा भला कहा, उसने उसकी बात पर जरा भी गुस्सा या शक नही किया। वह तो देवी निकली, जिसमे पवित्रता की सुगंध है, वह तो उसके चरणों की धूल के समान भी नही, उसके चरणों को धोकर भी पिये तो उसका यह पाप और अपराध धुलने वाला नही है, उसने मुझ जैसे पापी को ऐसे क्षमा कर दिया जैसे ईश्वर अपने किसी बैरी को माफ कर देते हैं। यह मेरे लिये किसी देवी समान ही है। 

शीला को गर्व था कि उसके पति ने आखिरकार उससे यह बात ज्यादा दिवस तक नही छुपाई, और स्वयं ही अपना अपराध मान लिये। अगर यही बात किसी और से पता चलती तो वह स्वयं भी किसी को अपना मुंह दिखाने के लायक नही रहती, साथ ही उसके पति को जेल भी जाना पड़ता।


कुछ दिनों के बाद,,,, शीला के मुख पर गर्व की लहर उठी थी और धनराज के मुखकी आभा ऐसी थी कि जैसे उसने किसी देवी को पाकर उपासना करने शुरू कर दिया हो। थाने से खबर आई कि जिस गिरोह के खिलाफ धनराज ने रिपोर्ट की थी उसी गिरोह ने पचास से अधिक लोगो को अपना शिकार बनाया था।कुछ इसमें भी पॉलिटिक्स के लोग शामिल थे।

शीला का हदय पुलकित हो उठा कि गिरोह पकड़ा गया। परन्तु उसके चेहरे की भाव भंगिमाये परिवर्तित हो गई, अशांति एवं चिंता की प्रथम रेखा चेहरे पर गहरी होती चली जा रही है और वह कहती है  कि इस गिरोह के कारण कितनो के घर परिवार टूट गये होंगे।

इति।

मौलिक :शिवेंद्र मिश्रा"आकाश"1



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