'गणवेश'
'गणवेश'
बाहर से किसी के चलने की आवाज आ रही हैं...मानो ऐसा प्रतीत हो रहा कि कोई बाहर से अन्दर की ओर बढ़ रहा है, बहुत मन्द चाल, लेकिन चलने का शोर सुनाई दे रहा है, चाल से प्रतीत होता है कि बहुत वजन अपने पर लादे जबरदस्ती आगे बढ़ने का प्रयत्न करता हुआ आ रहा है, जैसे हाथी की चाल भी धीमी होती है परन्तु कम्पन उत्पन्न होती रहती है, इसी चाल से अन्दर आता हुआ चिंटू सोफे पर बैग को पटकता है, और वही पर बिन जूते मोजे उतारे दोनों पैरों को पसारकर उसी सोफे पर छाती के भर पड़ा है, जितना वजन उसका नही है उससे ज्यादा वजन उसके स्कूल बैग का है।
मैंने आकर देखा तो महाशय ने सारे बैग की किताबों को इधर उधर फैला दी। शर्ट की आधी बटन खुली, पेंट को उतारकर एक कोने की ओर फेक दिया,जूते मोजे ऐसे पड़े हुए है जैसे दोबारा पहनने का मन ही नही है। चार वर्ष का बालक क्या जाने कहा क्या रखा जाए! विद्यालय से घर की ओर लौटने का जो आनंद होता है, जो लगन और ऐसा लगता है मानो बहुत बड़ी जंग जीतकर योद्धा अपने क्षेत्र को आ रहा है। चिंटू अपने पानी की बोतल को खोलकर उसके ऊपर बैठ कर जैसे गाड़ी पर बैठने का मजा ले रहा है। और उसे आगे पीछे घसीटकर खेलने लगता हैं।
"चिंटू उठो बेटा बोतल खेलने की चीज नही है, टूट जायेंगी। "
"नई नई, मैं नही उथूऊँगा। मैं इसको थोड़ दूउंगा।"
कपड़ों को सुव्यवस्थित रखती हुए ... "बेटा! कपड़ों को ऐसे नही फेकते इन्हें अपनी जगह पर रखना चाहिये, ये हमें कल फिर पहनना है,और इनको अच्छे से रखना चाहिये क्योंकि भगवान जी आपको बहुत सारी बुद्धि देंगे।" (प्रायः हमारे यहाँ बच्चों को ऐसे ही लालच दिए जाते हैं।)
"मैं नई पहनूँगा इन्हें मुझे अच्छे नई लगते। डेली डेली एक ही कपड़े पहनूं क्या ?"
अब बालक की बात सुनकर मैं थोड़ा हँसी।अच्छा बाबू को अलग अलग कपड़े पहनना हैं।
उस वक्त मैने उसकी बात पर ध्यान नही दिया। लगा की बच्चा है कुछ भी बोलता रहता है, हँसी में मेरी बात निकल गई।
अक्सर मेरी शाम को अकेले बैठकर कुछ विचार करने की आदत थी। मुझे लगा कि इतने छोटे बच्चे को यह कैसे लगने लगा कि डेली डेली एक से कपड़े पहनने से चिढ़ होने लगी। मन मे पुनः एक प्रश्न उठा की गणवेश का क्या काम? बिना गणवेश के भी तो बच्चो को पढ़ाया जा सकता है! और आजकल के बड़े बड़े कोइड स्कूल तो दो दो ड्रेस रखते है, वो भी फिर अभिभावको को मजबूरन लेना पड़ती हैं। ऊपर से टाई-बेल्ट,जूता, मोजे, न जाने कितनी फलानी चीजे लेना पड़ता है।
पहले के भी तो बच्चे थे जो बिन ड्रेसों के स्कूल जाते थे, मैंने भी तो एक नॉवल पढ़ा था "स्वामी एंड्स फ्रेंड्स" जिसमे लेखक ने भी उनका वर्णन किया है जिसमे वो आपने घर के ही कपड़े पहनकर जाते थे।
जिससे मेरे मन के विचारों को देखने का नजरिया मिल गया था। मेरा यह विचार और दृढ़ हो गया था कि शायद पहले ऐसा होता होगा!
मेरे विचारों में पुनः विरोधाभाष उतपन्न खड़ा हो उठा मैंने तो अपने दादाजी,पिताजी और शिक्षकों से सुना था कि पहले गुरुकुल होते थे जहाँ पर शिष्यों को गुरुजी की आज्ञानुसार ही रहन सहन होता था, उनका एक-सा पहनावा धोती- कुर्ता गले मे तुलसीमाल, माथे पर चंदन इत्यादि प्रत्येक दिन का यही रूप सिंगर था। क्या उनके मन मे भी अलग प्रकार की रूप बनाबट की लालसा नही थी जो आज कल के बच्चों में देखने को मिलती है?
पुनः विचारो का तर्क शुरू हुआ कि अगर गुरुकुलों,विद्यालयो में सभी आपनी मन मर्जी से कपड़े और श्रृंगार करके आते है, तो क्या उनमे समानता हो पाएगी? क्योकि कोई अधिक सुंदर बनकर जैसे लड़के जीन्स का पेंट पहनना अधिक पसंद करते है,रंग बिरंगी शर्ट, आदि,और लड़कियां भी अपनी अपनी पसंद के कपड़े रंग बिरंगे,खुले बालो के साथ, कैसे प्रतीत होंगे।विद्यालय जो छात्रों को सर्वप्रथम अनुशासन का पाठ सिखाता है उसका क्या होगा। कक्षा में असामनता, अनुशासन का हनन, असन्तुलित वातावरण कैसे छात्रों को आगे बढ़ने देगा। जिस प्रकार पाचो उंगलिया समान नही होती उसी प्रकार प्रत्येक बच्चे के परिवार की आर्थिक हालत समान नही होते, कुछ बच्चे कक्षा में सजे सवरे बैठे होते और कुछ कक्षा में आने से पहले दस बार विचार करते। अनमने मुरझाए चेहरों के साथ।
अब मुझे गणवेश का महत्व कुछ कुछ समझ आने लगा था,यह विषय ऐसा नही की बहुत ही जटिल हो परन्तु कभी कभी हमारा ध्यान इसकी ओर केंद्रित नही होता है, वह एक गणवेश छात्रों के लिये केवल कपड़ा नही है उसकी आत्मानुभूति जब बालक को होती है तब वह स्वयं उसका आनंद लेने लगता हैं।
अगर गणवेश न होती तो एक छात्र में दूसरे छात्र से वह घनिष्ठ मित्रता, निर्मल दोस्ती, वो सौहार्द,भाईचारा, आदि में भी कमी होती। असामनता विचारो की चल सकती है परन्तु जब वह ईष्या का रूप ले लेती है तो खिन्नता विकास में बाधा को उतपन्न करने लगती है। और ईष्या किसी के विचारों से जन्म ले शायद ऐसा नही होता वह तो मनुष्य की बाहरी चीजों से उतपन्न होती है,
कक्षा में ज्ञान का उपदेश कभी भी कम या ज्यादा नही होता,सभी छात्रों के लिये शिक्षक समान ज्ञान प्रदान करते है उसमें कोई भेद भाव नही होता उसी प्रकार सभी छात्रों का समान गणवेश भी अप्रत्यक्षरूप से समानता का सूचक ही है जो कि बिना भेद भाव को प्रकट करता है जिसे विद्यालय के अनुशासनरूपी आवरण से ढक दिया जाता हैं। प्रायः बच्चों को अनुशासन का बोध कराया जाता है जिसे एक सीमा के बाद वो बोझ समझने लगते हैं। अनुशासन को अगर मनबाना है तो उसके पीछे के तर्क और कारण से पहले बच्चे को परिचित कराना अभिभावक का दायित्व होना चाहिए।
अब मन को कुछ सुकून हुआ कि जो प्रश्न एक बालक ने किया उसका बास्तव में कितना गहरा उत्तर छिपा हुआ है, वह तो छोटा है वह नही जानता इन सब चीजो को परन्तु उसके एक प्रश्न ने मुझे कुछ सोचने का और विचार करने का मौका दिया वह भी अनुभूति का ही हिस्सा है।
