"वीरामंगल"
"वीरामंगल"
आज तो रामपुर के बाबूलाल जी के यहाँ तो जोर शोर से जश्न का माहौल चल रहा था, और चले भी क्यों नहीं भाई क्योंकि उनके बेटा भैरवसिंह की बहू को बेटी जो हुई थी, उनके कुल में न जाने कितने दिनों के बाद किसी लक्ष्मी ने जन्म लिया था। इस खुशी के अवसर पर बाबूलाल जी ने तो सारे गांव में लड्डू भी बटवा दिये थे। पर यह बात गांव के कुछ लोगो को पच नहीं रही थी, और कुछ इसलिये जल रहे थे कि गांव का मध्यम वर्ग के किसान ने बेटी के जन्म पर सारे गांव को अपनी खुशी पर शामिल कर लिया। इतनी खुशी तो उन्हें उनके घर जब पोता आया था तब न हुई थी। बाबूलाल जी ने अपनी पोती के नाम स्वयं रखने का निश्चय लिया,और कहा कि जो दिखने में बखूब सुंदर मेरी प्यारी बिटिया उसका नाम रखा " वीरा मंगल"! जिसका सही अर्थ होता है- बहादुर लड़की।
दिन प्रतिदिन तथा साल दर साल वीरा बड़ी होती जा रही थी,गांव के एक अच्छे विद्यालय में उसका दाखिला हुआ,वह अपने भाई छोटू के साथ विद्यालय जाती। पढ़ने लिखने में माहिर तथा होशयार,बिलकुल अपने भाई से एक गुना आगे ही निकलेंगी ऐसा उसके दादा अपने उम्र के लोगो से बात कर रहे थे। छोटू उसका भाई होने के साथ ही एक अच्छे मित्र होने का भी फर्ज निभाता था। उसे कोई भी परेशानी नहीं होने देता था। वीरा घर मे छोटी होने के कारण सभी की लाडली थी। कभी थोड़ी बहुत गलती कर देती तो उसकी माँ उसे डाटती तो दादाजी बीच में आकर बचा लिया करते हुए कहते थे- "बच्ची ही तो है समझने लगेगें और उनकी अभी उमर ही क्या है खेलने कूदने की"!
लेकिन माँ तो माँ ही होती है इसलिये कहती है "हमेशा डर बना रहता कि कही दादा के लाड़ में बेटी न बिगड़ जाये"
दादाजी तुरन्त जबाब देते हुए कहते है-अरे बहुरानी ! तुम ए चिंता न करो हमाई बिटिया बहुत ही समझदार है और आगे उससे पढ़ लिखकर बड़ा अधिकारी भी तो बनना है।"
ये सुनकर वीरा तुरन्त कहती है कि "हा,,हा,, दादाजी, मुझे कलेक्टर जो बनना है।"हमेशा से उसके मन में कलेक्टर बनने का सपना सजोये हुए थी। वह हमेशा कहती कि मुझे बड़ा होकर देश की सेवा करना हैं। वैसे वीरा अब 10वीं कक्षा पास कर चुकी थी।
एक दिन अचानक से वीरा के पेट में दर्द उठा तो बैध जी को लाया गया,कुछ दर्द की दवाइयां देकर दर्द का मर्ज करने की कोशिश की,थोड़ा बहुत आराम हुआ। लेकिन दूसरे दिन फिर वीरा के पेट में दर्द हुआ भैरवसिंह ने सोचा कि बेटी को पास के ही शहर में चिकित्सालय में उपचार के लिये ले जाया जाए। वहां डॉक्टरों ने अनेकों टेस्ट्स किये तथा वीरा के पेट में कैंसर होने बताया गया।ये सुनकर भैरवसिंह तथा उसकी पत्नी अंदर से टूट गये।वह रोते हुए बोले कि मेरी फूल सी बच्ची के साथ ही भगवान ने ये क्यों किया? ऊपर वाले ने ये सब मेरे साथ क्यो नहीं किया ??
डॉक्टरों से दादाजी तथा सारे परिवार ने यह कह दिया था कि आप चाहें जितनी भी रुपया ले लो परनतु हमारी बेटी को बचा लो। किन्तु डॉक्टरो का कहना था कि उनकी बेटी अब कुछ ही दिनों की मेहमान रह गई है।आप इसकी जितनी सेवा कर सकते है तो करे, अच्छा होगा। या फिर आप बच्ची के अंदर एक पॉज़िटिव फीलिंग बनाए रखे तो कुछ हो सकता हैं। अब तो वह राम भरोसे है इतना कहकर डॉक्टर अपने केबिन में चले गये।
तभी दादाजी स्वयं से आत्मविश्वास एवं कठोर होकर कहते हैं" मैं अपनी पोती को नहीं खो सकता। मैं उसे इस बीमारी से बचाऊँगा।"जब वीरा को इस बीमारी का मालूम चला तो वह तो सोच चुकी थी कि उसका अब सपना पूरा नहीं होगा। उसका अन्दर से पूरा का पूरा आत्मविश्वास टूट चुका था। तभी कमरे में दादाजी का आगमन हुआ वीरा उन्हें देखकर रो देती है और कहती है कि "दादाजी मैं इतने जल्दी नहीं मरना चाहती, मुझे अभी तो इस देश की सेवा करना है,मुझे अपने दादा के साथ खेलना है, पाप मम्मी की एक अच्छी बेटी बनना है।"
दादाजी भी बेटी की बाते सुनकर अंदर ही अंदर रोते हैं परंतु आपनी पोती का मनोबल बढ़ाने के लिये उसे कहते हैं कि "ए पागल बिटिया ऐसे नहीं बोलते,अभी तो मेरी प्यारी बिटिया है। तू हमेशा मेरे साथ रहेगी।"
दादाजी एक बुद्धिमान एवं आध्यात्मिक व्यक्ति थे,वे इतने जल्दी हार मानने वालों में से नहीं थे। उन्हें पूर्ण विश्वास था कि "वीरा मंगल" का आत्मविश्वास ही उसे कैसंर से मुक्ति दिलायेगा।इसलिये उन्होंने संकल्प किया कि वीरा के मन में जीने की ललक है उसे इसी प्रकार बरकरार रखने के लिये उन्हें प्रयास करना चाहिये और दूसरी बात यह भी थी कि जितने दिन भी वह जिये बिल्कुल अपनी इच्छा से जिये।
प्रतिदिन की भांति वह वीरा को आज भी साँयकाल को कहानी सुनाने के लिये बुलाते है, परन्तु आज थोड़ा बदला हुआ माहौल था आज दादाजी ने परिवार के सारे सदस्यों को कहानी सुनने के लिये बुलाया ।दादाजी आज अपनी कहानी को किसी भूमिका बनाये बिना कहते है की मैंने अपनी पोती वीरा का नाम वीरा मंगल इसलिये रखा का क्योकि उसका अर्थ होता है "बहादुरलड़की",और मेरी वीरा उसके नाम के जैसी ही बहादुर है।
वह कहानी सुनाते हुए कहते है की "एक बार किसी देश की पुलिस ने एक कैदी को किसी अपराध में पकड़ा,और उसे जेल में बंद कर दिया। वहा पुलिस वालों ने उस अपराधी से कहा कि"कल हम तुम्हारी आँखों पर काली पट्टी बांध कर एक साँप से कटवा देगे।"इस बात को पुलिस वालों ने इतनी बार उस कैदी से बोला कि कैदी ने रातभर यही दोहराया कि "कल मेरी आँखों पर काली पट्टी बांध कर एक साँप से कटवा देगे।"फिर दूसरे दिन पुलिस वालों ने उस कैदी की आखों पर काली पट्टी बांधकर उस युवक को एक मामूली से चुहे से कटवा दिया। परन्तु कैदी के मन मे तो डर यही था कि उसे साँप से कटवा दिया है इसी डर के कारण उस कैदी की मौत हो जाती हैं। जब सुबह उस कैदी का पोस्टमार्टम होता है तो पाया जाता है कि उससे साँप के काटने के कारण मृत्यू हुई है, उसके शरीर में साँप का जहर मिलता है।"उस व्यक्ति ने अपने डर को अपने ऊपर इतना हावी कर लिया कि उसके जो डर वाले हार्मोंस निकले बो साँप के जहर का काम कर गये।
अब दादाजी की बात को सुनकर वीरा का आत्मविश्वास फिर से लौट आया और उसने कहा कि "मैं अब दुनिया को जी कर दिखाऊँगी" तथा इसी के साथ सारे परिवार के अंदर एक नई ऊर्जा का संचार हुआ। कोई भी समस्या मनुष्य के लिये बाधा बनकर उसका जीवन नहीं थाम सकता आत्मविश्वास, आत्मसंकल्प तथा आत्मशक्ति से जब तक मनुष्य अपने आप में ही ऊर्जा का संचार नहीं कर सकता तब तक वह कोई भी कार्य नहीं कर सकता। यदि उसने अपने मन को पोसिटिविटी से भरपूर कर नेगेटिविटी को खत्म कर जीवन में आने वाली कोई भी समस्या, बीमारी तथा अपने मन के अन्तर्द्वन्द से कभी भी निकल सकता।
कुछ सालों के बाद....
अब वीरा... नहीं नहीं ' कुमारी वीरामगल' कलेक्टर बन कर अपने सपनो को पूरा कर रही थी साथ ही साथ आपने देश और दादाजी की भी सेवा कर रही थी, अब वह ऐसी ही जिंदगी से परेशान मृत जीवो में भी जान डालने का कार्य कर रही थी।
