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गुॅंजन कमल

Drama Inspirational

4  

गुॅंजन कमल

Drama Inspirational

आत्मा की व्यथा

आत्मा की व्यथा

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स्वर्ग की तमाम सुख-सुविधाओं के बीच रह कर भी मेरा अंतर्मन व्यथित क्यों हैं।मृत्यु के पश्चात मेरे कर्मो के अनुरूप मुझे ‌ स्वर्ग की प्राप्ति हुई।मैं आज तक असमंजस में हूॅं कि मुझे स्वर्ग की प्राप्ति कैसे हुई ? मैंने जीवनपर्यंत कभी भी तों स्वर्ग की अभिलाषा नहीं की और मुझे तनिक उम्मीद भी नहीं थी कि मेरे जैसे साधारण व्यक्ति को स्वर्ग में भी स्थान मिल सकता हैं । मैंने तो भगवान के समक्ष कभी भी धूप - दीप तक नहीं की।स्वयं से कभी मंदिर गया भी नहीं और ना ही पूजा - अर्चना ही की।हाॅं ! मेरी पत्नी अवश्य पूजा - पाठ में अग्रणी रहती लेकिन मैं तो .... जब मैं दोपहर की नींद लें, सोकर उठता, वह नहा कर पूजा करने जाती रहती।यह उसका नित्य - प्रतिदिन का नियम था।

मेरे कर्म ही मेरे लिए पूजा के समान थें।मैंने किसी के प्रति अपने मन‌ में कोई द्वेष नहीं रखा।द्वेष रहित जिंदगी जीता रहा।मुझे कोई भी कुछ कहता प्रत्युत्तर में उसे मेरा मौन ही प्राप्त होता।सच कहूं तो मैं किसी को उत्तर देना ही नहीं चाहता था।कोई गाली भी देता तों मैं मुस्कुराते हुए वहाॅं से अपने कर्मपथ पर जाने के बहाने निकल पड़ता। यही वजह थी कि मेरी पत्नी और मेरे बच्चों की नजर में मैं सदैव ‌से ही ग़लत था।

मेरे अंतर्मन की व्यथा जानने के लिए शुरुआत शुरू से ही करते हैं।मेरा बचपन मेरे नाना - नानी जी के घर में ही बीता। नाना का परिवार धनाढ्यों के परिवार की पहचान था।घर में नौकर - नौकरानी मैंने बचपन से ही देखी थी।नानी जी मुझे बहुत प्यार करती थी।उनका लाडला नाती जो था मैं।जहां बच्चों को उसके अपने हाथों से खाना खाने का सिखाया जाता है उस उम्र में मेरी नानी जी मुझे अपने हाथों से खिलाती थी। मेरी आठ साल की उम्र में जब नानी जी एक दिन अचानक ही दिल के दौरें की वजह से हम सबको छोड़ भगवान को प्यारी हुई तब जाकर मैंने अपने हाथों का इस्तेमाल अपने भोजन करने के लिए किया।

मुझे शुरू से ही किताबों से लगाव था और यह लगाव उम्र के साथ-साथ बढ़ता ही गया।कहते हैं किताब हमारी सबसे अच्छी दोस्त होती हैं, मैंने भी किताबों से दोस्ती की पहल बचपन से ही कर दी थी।उम्र बढ़ने के साथ मेरी किताबों से दोस्ती हों गई थी।मैं जहाॅं भी जाता किताबें मेरे साथ जरूर होती।मैं और किताब, हम दोनों एक-दूसरे के साथ हर परिस्थिति में खुश रहते।समाज में मेरी छवि पढ़ाकू लड़के के अलावा कुछ और नहीं थीं।मैं स्वयं और किताबों के संग खुश रहता।मेरी किताबों के संग ऐसी दोस्ती और साथ देखकर तों कुछ लोग मुझे पागल भी कहने लगे थे।समाज और परिवार के लोगों की सोच देखकर मैं सोचता :- " क्या मेरा और मेरे दोस्त का साथ सिर्फ शिक्षा ग्रहण करने तक ही रहेगा ?" मैंने अब तक तों यही देखा है कि किसी भी लड़के को एक निश्चित उम्र की अवधि तक ही किताबों का साथ मिलता हैं।जब हम बच्चें होतें है तों हमें किताबों से दोस्ती करने, पढ़ने - लिखने के लिए कहा जाता है सिर्फ इसलिए कि हम पढ़ - लिखकर नौकरी कर सकें, अपने और अपने परिवार को तमाम सुख-सुविधाओं से सुशोभित कर सकें।

शिक्षा ग्रहण करने के पीछे हम सबका अपना स्वार्थ निहित होता हैं।समाज की ऐसी सोच मेरे छोटे से दिमाग में कभी अपना घर नहीं बना पाई।अपने दोस्त किताबों से मैंने बचपन से ही एक वादा किया था " उसका साथ कभी नहीं छोड़ने का "। जिसे मैंने मरते दम निभाया भी था।

इस वादे को निभाने के लिए मुझे किस - किस ने क्या - क्या नहीं कहा।युवावस्था में किताबों के प्रति मेरी दीवानगी देख कर पागल भी तों मैं बना दिया गया था।कम उम्र में ही परिवार के दवाब के कारण मुझे शादी करनी पड़ी।शादी के बाद भी मेरी पढ़ाई जारी थी। जैसे - जैसे उम्र बढ़ रही थी परिवार के सदस्यों द्वारा सरकारी नौकरी का दवाब बढ़ रहा था।

सरकारी नौकरी ना आज आसानी से मिलती हैं और ना मेरे जमाने में।इसे प्राप्त करने के लिए कड़ी मेहनत के साथ - साथ किस्मत का भी साथ चाहिए।मेरी पढ़ाई समाप्त हो चुकी थी लेकिन किस्मत का साथ अभी तक मुझे नहीं मिल पाया था।अपने दोस्त से जिंदगी भर जुड़े रहने के लिए मैं शिक्षक बनना चाहता था।मैं समाज को यह बताना चाहता था कि किताबें हमें रोजगार दिलवाने में मददगार तों साबित होती ही है साथ ही यह हमारे मान-सम्मान को बढ़ाने में भी उपयोगी सिद्ध होती है।परिवार के सदस्यों का व्यवहार भी मुझे सोचने पर बाध्य कर रहा था।घर और बाहर कोई इज्जत नहीं थी मेरी।

अंतिम प्रयास के उद्देश्य से मैंने कुछ दिनों के लिए घर छोड़ दिया और जी जान से पढ़ाई-लिखाई शुरू कर दी।मेरी मेहनत रंग लाई और टीचर ट्रेनिंग के लिए मैं सलेक्ट हो गया।ट्रेनिंग के बाद हाई स्कूल में सहायक शिक्षक के पद पर मेरी नियुक्ति हुई।मेरी तनख्वाह महीने में आने लगी।समाज के साथ - साथ घर में भी पहले की अपेक्षा मेरी इज्ज़त बढ़ गई । जल्द ही पूरे इलाके में मास्टर साहब के नाम से मैं प्रचलित होने लगा।मान-सम्मान बढ़ने लगा।

मैं खुश था लेकिन मेरी यह खुशी क्षणिक थी।घर का बड़ा बेटा होने के कारण पारिवारिक जिम्मेदारियों का बोझ मुझ पर ही था।माॅं और पत्नी दोनों को ही मेरी तनख्वाह का इंतजार रहता।माॅं ने मुझे जन्म दिया, पढ़ाया - लिखाया, मेरी परवरिश की, उनका एहसानमंद तों मैं ताउम्र रहा।पत्नी मेरी जीवन संगिनी थी, हर सुख-दुख में मेरा साथ वही तों देती आ रही थी।दोनों ही पलड़े मेरे दिल के करीब थें।बहुत ही विकट स्थिति थी, मैं धर्मसंकट में फंस गया था।

माॅं की ममता की ओर का पलड़ा समय की परिस्थितियों के कारण भारी हो गया।मैं चाह कर भी अपनी पत्नी और बच्चों के लिए कुछ नहीं कर पाता।

हमारे बीच बात - बात पर लड़ाईयां होने लगी।

दिन - प्रतिदिन घर का माहौल अशांति में परिवर्तित होने लगा था।पत्नी और बाल - बच्चों की नजर में मैं ऐसा निकम्मा था जिसे स्कूल आने - जाने और किताब पढ़ने के अलावा कुछ नहीं आता था।

ऐसा नहीं है कि मैंने अपने परिवार के लिए कुछ करना नहीं चाहा।मैंने एक दिन बहुत ही प्यार से अपनी पत्नी के लिए साड़ी खरीदी।रास्ते भर मन में अलग-अलग तरह के ख्याली पुलाव बनाते हुए मैं घर पहुॅंचा।

मैंने  साड़ी  को  छुपा  लिया था  ताकि   अपनी जीवनसंगिनी को अकेले में दें सकूं।एकांत की प्रतीक्षा में रात के दस बज गए।मेरी प्रतीक्षा समाप्त हुई और वह पल आ ही गया जिसका मुझे शाम से ही इंतजार था।

मैंने खुश होते हुए अपनी प्रिय को अपनी पसंद का तोहफा दे तों दिया लेकिन दिल जोर - जोर से धड़क रहा था और दिल की बस एक ही ख्वाहिश थी कि मेरी पसंद उनकी पसंद हों।

मेरे दिल की ख्वाहिश पूरी नहीं हो पाई।साड़ी उनको पसंद नहीं आई।उन्होंने गुस्से में साड़ी बिस्तर पर फेंक दिया।उस दिन के बाद से मेरी हिम्मत नहीं हुई कि मैं अपनी पत्नी के लिए अपनी पसंद से कुछ खरीद कर उन्हें दूं।

मैंने बेडशीट्स और परदे भी घर के लिए खरीदें लेकिन वह भी मेरी पत्नी को पसंद नहीं आई।कुल मिलाकर यह था कि मेरी पसंद जब मेरी पत्नी को पसंद नहीं थी तों किसी और से मैं क्या उम्मीद करता ?

यहाॅं तक कि फल - सब्जियों के लाने पर भी कुछ - ना कुछ जरूर कहा जाता।यह सब देखकर और सुनकर मैंने निश्चय किया कि मैं अपनी पसंद की कोई भी चीज अब से घर में नहीं लाऊंगा।

उस दिन के बाद से मैं कुछ नहीं लाया।जों मिलता खा लेता, जों पहनने को दें दिया जाता पहन लेता।

जिंदगी इसी तरह कटने लगी।

सोमवार से शनिवार दस से चार स्कूल में कटती।पाॅंच बजें घर पहुॅंचता, उसके बाद अपने दोस्त ( किताबों ) के साथ समय व्यतीत करता।

परिवार के सदस्यों के लिए मैं एक सिर्फ बैंक था।जरूरत के समय ही मुझे याद किया जाता।मैं अब पूरी तरह से अपने दोस्त के साथ रहने लगा।नहाने और खाना खाने के लिए ही घर के अंदर प्रवेश करता बाकी सब मेरे बाहर वाले कमरे में ही मौजूद होने के कारण मैं वहीं पर रहता।

बेटियों की शादी में मेरी मदद मेरे बड़े बेटे ने की।लड़का भी उसी ने ढूंढा।दोनों बेटियां अपने ससुराल में खुश थी।बड़े बेटे की भी शादी मैंने की।वह भी अपने परिवार के साथ हमसे दूर कोलकता में रहता था क्योंकि वहीं पर उसकी नौकरी जों थी।

पोते - पोतियों के सुख से भी ईश्वर ने मुझे नवाजा।सबका व्यवहार मेरे प्रति कह सकते हैं कि ठीक ही था।पति - पत्नी के रिश्ते में एक-दूसरे के लिए अगर इज्जत हों तों दूसरे भी उनकी इज्जत करते हैं लेकिन ना हों तों आप समझ सकते हैं कि अपने बच्चे तक आपकी इज्जत नहीं करते।ऐसा मेरे साथ भी हों रहा था।

मैं छोटी-छोटी बातों के लिए अपनी बहूओं और पोते - पोतियों के सामने ही प्रवचन सुनने लगा।मैं कोशिश तो करता कि अपने स्वयं के काम मैं स्वयं कर लूं लेकिन बढ़ती उम्र ने धोखा दे डाला ऊपर से वजन भी पन्चानवें किलों।

मेरी ब्लड प्रेशर की बीमारी ने तों परिवार के लोगों को बोलने का मौका ही दें दिया।पहले ही मैं हर छोटी चीज के लिए दूसरों पर आश्रित था ऊपर से जिस दिन मेरा बी. पी . लो हो जाता मुझे नित्यकर्म क

े लिए लें जाने से पहले मेरे वजन के लिए सुनाया जाता।

साठ साल पूरे होते ही मैं सेवानिवृत्त हो घर में बैठ गया।किताबें पढ़ने का शौक था तों जाहिर सी बात है कि किताबें खरीदनी पड़ती।इसके लिए भी फिजूलखर्ची का ताना मेरा इंतजार करता रहता।

मैं अब चोरी - छुपे किताबें मॅंगवाता ऐसा कितने दिनों तक चलता।एक - ना - एक दिन सच्चाई तों सामने आ ही जाती है।मेरी चोरी भी पकड़ी गई।मेरी हर हरकत पर मेरा छोटा बेटा नज़र रखता।मैं क्या कर रहा हूॅं ? किससे और क्या बातें करता हूॅं ? इन सारी बातों का हिसाब - किताब मेरी पत्नी के पास पहुंच जाता।

पुरानी और नई बातों का पिटारा खुल जाता और मैं कटघरे में खड़ा कर दिया जाता।जैसे कि मेरी बचपन से ही आदत थी कोई अगर कुछ अपशब्दों का भी इस्तेमाल मेरे लिए करता तो मैं वहाॅं से हट जाता।

यहाॅं भी मैं यही करने की कोशिश करता।कभी सफलता मिलती लेकिन कभी तों यह भी नसीब नहीं होता।मुझे सुनना ही पड़ता।

पिछले साल जब कोरोना नामक महामारी देश - विदेश में अपना कहर बरपा रहा था, मेरे मोहल्ले में बाढ़ आ गई थी।तीन - चार महीने के बाद भी मोहल्ले के पानी का निकासी नहीं हुआ।प्रशासन ने मदद की, मोहल्ले में नाव की व्यवस्था करा दी गई वह भी लोकल न्यूज चैनल के संज्ञान दिलाने के बाद।

मेरी पत्नी को नस की बीमारी हैं, दो साल पहले दिल्ली से इलाज भी चला था।वह वहीं का दवा खा रही थी जिससे उसे आराम भी था।

कहते हैं मुसीबत जब आती है तों चारों तरफ से आती हैं।एक तों कोरोना दूजे बाढ़, हम ऐसे ही परेशान थें कि तभी मेरी पत्नी के नस वाली बीमारी ने जोर पकड़ ली और उसे बिस्तर पकड़ा कर ही दम लिया।

मेरा बड़ा बेटा कोरोना की वजह से यहाॅं आ नहीं पा रहा था और डाॅक्टर के पास जाने का कोई उपाय ही नजर नहीं आ रहा था।किसी रिश्तेदार को इस बाढ़ की स्थिति में कैसे कहते ?

मेरे बड़े बेटे का एक मित्र लोकल न्यूज चैनल में रिपोर्टर था।उसकी मदद से प्रशासन तक यह बात पहूंची और इसके साथ ही मेरी पत्नी तक डाॅक्टर भी पहुंची और बाढ़ की स्थिति का सामना करने के लिए नाव की व्यवस्था भी कर दी गई।

रोज - रोज डाॅक्टर के लिए इतने पानी में अपने रोगी को देखने ‌आना संभव नहीं था।मोहल्ले में से निकाल कर इलाज के लिए उन्हें उनकी बेटी के पास पहुॅंचा दिया गया।एक महीने तक वहीं पर रहकर इलाज करवाने के बाद वह पूर्णतया ठीक होकर वापस लौट आई।

इन एक महीने में मेरे छोटे बेटे ने मुझे घर में ही प्रवचन सुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।मेरे दिल पर बातों का असर होने लगा था।मैं इन बातों को अपने बड़े बेटे से कह भी नहीं नहीं सकता क्योंकि मेरी बेटियों का कहना था कि ऐसा कर मैं दोनों बेटे को लड़ाना चाहता हूॅं।

मेरे ईश्वर और मेरा दिल ही जानते हैं कि मैंने स्वपन में भी ऐसा नहीं सोचा होगा।खैर एक महीने बाद मेरी पत्नी घर आ चुकी थी और सब कुछ पहले जैसा ही चलने लगा था।

कुछ बातें ऐसी होती हैं जिसे हम किसी से भी कह नहीं सकते।अंदर ही अंदर वह बातें ‌हमे परेशान करती ही रहती है।बेटे - बेटियों की बातें उम्र की इस दहलीज पर चुभने लगी थीं।

अपनी पूरी जिंदगी और जमा - पूंजी परिवार के लिए न्योछावर करने के बावजूद भी यह सुनने को मिले कि आपने हमारे लिए किया क्या हैं ? उल्टे हम ही आपकी सेवा दिन - रात करते रहते हैं।

दिल छलनी करने वाले ऐसे शब्दों को भला कोई कितने दिनों तक कैसे सहन करता ??

तीन महीने बाद जब कोरोना का कहर कम हुआ, मेरा बड़ा बेटा और उसका परिवार घर आया।शायद भगवान नहीं चाहते थे कि मैं और अधिक दिन जिंदा रहूं।भगवान से याद आया ! मैं जो पूरी तरह नास्तिक था, मरने से तीन माह पहले अचानक से ही मुझमें आध्यात्मिक परिवर्तन होने लगें।मैं पूजा-पाठ तों अचानक से नहीं करने लगा लेकिन मेरे होंठों पर ईश्वर नाम जरूर रहने लगा।सोते - जागते कहीं पर भी भगवान का नाम लेना मेरी दिनचर्या का अहम हिस्सा बन गए थे।

मैं अब ईश्वर भक्ति में रम गया था।मैं घर में बने पूजा स्थल में पूजा करने तों नहीं जाता लेकिन पूजा के बाद का प्रसाद मैं रोज बड़े चाव से खाने लगा।

एक दिन मुझे सांस लेने में दिक्कत महसूस होने लगी।बड़े बेटे ने शहर के सबसे बड़े फिजिसियन से मुझे दिखलाया।उसने दवा दी, एक दिन बाद तक की पूरी दवा खाने के बाद तों मेरे पैरों में जान ही नहीं बची।एक दिन पहले जिन पैरों के सहारे चलकर मैं डाॅक्टर के पास गया था उन्हीं पैरों से चल कर मैं अपने घर के बाथरूम तक जाने में भी अपने आप को असमर्थ पा रहा था।

मेरी स्वयं की आवाज भी मुझे स्पष्ट रूप से सुनाई नहीं पड़ रही थी।गला बंझने के बाद की आवाज सुनाई पड़ रही थी।खाना भी खाने की इच्छा नहीं

हों रही थी।बहू रोटी - दूध खिलाने आती तों दो - तीन चम्मच से अधिक खा ही नहीं पाता।

मेरी स्थिति बढ़ते दिन के साथ बिगड़ रही थी जिसे हर कोई देख पा रहा था।मेरे स्कूल के मित्रगण भी मेरे स्वास्थ्य की जानकारी लेने के लिए आए।उनके सुझाव पर ही मेरी बहू मेरी सारी मेडिकल रिपोर्ट लेकर दूसरे डाॅक्टर से मिलने गई।

रिपोर्ट देखते ही दूसरे डाॅक्टर ने कहा कि मेरा हर्ट पैंतीस पर्सेंट ही काम कर रहा हैं।तुरन्त ही उसने अपने अस्पताल में मुझे भर्ती कराने का सुझाव दिया।दो घंटे बाद ही मुझे अस्पताल ले जाया गया।

मेरी जाॅंच करने के बाद डाॅक्टर ने उसी वक्त कहा कि मेरी रिकवरी नहीं हों सकती।

मेरे बेटे ने चार दिन इस उम्मीद में आई. सी. यूं. में रखवाया कि कोई चमत्कार हो जाएं और मैं अच्छा हो कर वापस घर लौट सकूं।

चौथे दिन सुबह ही डाॅक्टर ने मेरे बड़े बेटे से कह दिया कि आप जितने दिन यहां रखें लेकिन कोई चमत्कार अब नहीं हों सकता है इसलिए आप इन्हें घर लेकर लौट जाएं।

मैं अपने बनाएं गए घर में दोपहर में आ चुका था।मुझे देखने पूरा गाॅंव जैसे उमड़ पड़ा था।मोहल्ले के लोग भी बारी - बारी से मिलने आ रहें थे।गाॅंव के भाई - भतीजे ने तुलसीदल डाल कर गंगाजल पिलाना शुरू कर दिया था।परिवार के सदस्यों की ऑंखो में ऑंसू थे और हाथों में गंगाजल की चम्मच।

सबसे विदा लेने में मुझे बहुत तकलीफ हो रही थी।

विदाई का माहौल ऐसा ही तों होता है, वह भी अंतिम विदाई का।चारों तरफ मैं देख रहा था मेरे अपने मेरे बारे में ही बातें कर रहे थे।सभी की आंखों में मेरे लिए आंसू थे।

मृत्यु के पश्चात मैं परिवार और समाज के लिए महान व्यक्ति बन चुका हूॅं।मृत्यु से पूर्व सबकी नजरों में जों मेरे अवगुण थे वह गुण में तब्दील हो चुके थे।अब मैं देख रहा हूॅं मेरा परिवार हर मिलने आने वालों के सामने मेरे लिए ऑंसू बहाता है।यह सब देख कर मुझे आश्चर्य हो रहा है आज मृत्यु के बाद घर में मेरी इज्ज़त हों रही थी। काश ! अभी जो इज्जत और मान-सम्मान मुझे दिया जा रहा है, वह मुझे मृत्यु से पूर्व दिया जाता।मेरी जिंदगी में भी खुशियां होती।मैं भी अपने आप को महान सुन गौरवान्वित महसूस करता।

यहाॅं आने के बाद मुझे ज्ञात हुआ है कि इस दुनियां में जीते जी जों इज्जत और मान-सम्मान नहीं मिलता वह मृत्यु के बाद अवश्य ही मिल जाता हैं।मृत्यु के बाद नालायक इंसान भी लायक हों जाता है।काश ! यह इज्ज़त मृत्यु से पूर्व हर इंसान को मिलें ताकि कम से कम वह अपनी जिंदगी में चैन और सुकून से मृत्यु को तों प्राप्त कर सकें।

जो बात मुझे जीवन भर ढकोसला लगी।वही बात अभी हो रही है।मुझे याद है दो वर्ष पूर्व जब मेरी मां मरी थी तो इन्हीं पंडितों को मैंने कितना भला - बुरा कहा था।इन्हीं पंडितों के सामने मैंने अपने बेटे को कहा था कि जब मेरी मृत्यु हो तो इन पंडितों की दकियानूसी बातें मत मानना और यह ढकोसला मत करना।मेरी आत्मा को बहुत ही तकलीफ होगी लेकिन मेरी पत्नी जो जीवन भर मुझे ताने देते रही वही मरने के बाद मेरे लिए वह सब कुछ चाहती थी ताकि मेरी आत्मा को कष्ट ना हो।मेरी आत्मा को कष्ट हो रहा है यह देखकर कि मेरा बेटा इन पंडितों को दान देने के लिए और तेरह दिनों तक चलने वाले इस मृत्यु के पश्चात होने वाले क्रिया कर्म को अच्छी तरह संपन्न करने के लिए कर्ज के दलदल में डूब चुका है लेकिन सदियों से चली आ रही इस मृत्यु के बाद होने वाले काम क्रिया को वह निभाने के लिए मजबूर है।मेरी आत्मा इस दान और हो रहें मृत्यु भोज को कभी भी स्वीकार नहीं करेगी क्योंकि मेरी आत्मा यह जानती है कि मेरा बेटा यह सब समाज के दवाब और उन्हें दिखाने के लिए कर रहा है उसकी ऐसी हैसियत नहीं कि वह इतना सब कुछ कर सकें।

काश ! समाज में सदियों से चली आ रही ऐसी उस दकियानूसी परंपरा का अंत हो जाता जो मरने वालों के अपनों को ही कर्जदार बना दे।उन्हें मजबूर कर दें कि वो किसी भी स्थिति में रहे ऐसा उन्हें करना ही है।मरने वालों के परिवार की दयनीय स्थिति होने के बावजूद भी उन्हें यह परंपरा निभाने के लिए समाज द्वारा कहा जाता है और सभी उस मृत्यु भोज में सम्मिलित भी होते हैं।  अपनी खुशी से किया गया दान ही सर्वोत्तम दान माना जाता है लेकिन हमारे समाज में बहुत ऐसे परिवार हैं जिन्हें यह दान और मृत्यु भोज करना ही पड़ता है चाहे वह इसे करने की स्थिति में हो या ना हो।


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