आशियाना
आशियाना
कल की सी बात लगती है, मन को कचोटती रहती है। आज वैसे ही नेहा से मिलने का मन किया और मेरे कदम उसके घर की ओर बढ़ चले। जब पहुंची घर तो दरवाजा उसकी कामवाली बाई ने खोला। देखा नेहा खिड़की के पास बैठे अकेले बाहर निहार रही थी, शुन्य सी। गहरी सोच और चिंता की लकीरें उसके चेहरे पर स्पष्ट दिखाई दे रही थी।
कुछ दिन पहले वह बेंगलुरु से इंदौर आई थी, मेरीपदचाप सुन बोली आ बैठ कैसे आना हुआ? हम दोनों काफी समय से मित्र हैं और एक दूसरे से मन की बातें साझा कर ही लेते हैं। दुःख सुख संग संग जीते हैं।नेहा बहुत सरल मिजाज की सुलझी हुई लड़की है।अपना अहं उसे छु भी नहीं गया है। हर हालमेंअपने आपको संभाल लेती है।
मैंने कहा नेहा तुम काफी परेशान लग रही हो क्या बात है? कहने लगी कुछ नहीं रे, ऐसे ही सपनों की दुनिया में खो गई थी। क्या हुआ? पूछने पर उसने कहा- कल रंजन आया है घर बेचने को कह रहा है. मैं समझ गई कि वह किस उधेड़बुन में है।
समय अपनी गति से चलता ही जाता है, जब नेहा अपने पिता के घर में थी छोटी थी तब बड़ी खुशी से मेरा घर मेरा घर कहती थी, पर मां उसे हरदम एहसास दिलाती कि तुम्हें पराये घर जाना है, घर के काम सिखा करो। लड़कियों को बहुत सपने देखना शोभा नहीं देता, आदि आदि। समय बीतता गया- विकास के साथ विवाह बंधन में बंध कर वह अपने घर आ गई।
पापा ने समझाया
"बेटी अपने पति संग जाना,
ससुराल ही तेरा सब कुछ होगा,
आदर सत्कार करोगी सबका,
तो पूरा परिवार ही खुश होगा"
नेहा ने भी पापा की बात मान कर सभी को खुश रखने का प्रयास किया और आगे चलती चली। पर विचारों ने उसका पीछा न छोड़ा, क्या यह मेरा घर है यह बात उसे हमेशा व्यथित करती रहती।
विकास के मां बाबा भी उसे यही एहसास दिलाते कि नेहा ब्याह कर हमारे घर आई है, और हमारे घर के तौर तरीके से ही इसे रहना होगा। नेहा अपना घर बनाने का सपना संजोती रहती।
वक्त, दिन, महीने, साल बीत गए नेहा दो प्यारे बच्चों रंजन और रिंकी की मां बन गई। पारिवारिक व्यस्तताओं के बीच समय ही ना निकाल पाई अपने बारे में सोचने का। मां बाबा कभी के उसे अकेला छोड़ संसार से विदा हो गये।
पति ने अपने मेहनत की कमाई से एक छोटा सा घर बनवाया। नेहा की खुशी का ठिकाना नहीं था, जब घर का नाम आशियाना रखा गया, और नेम प्लेट पर पति के साथ उसका नाम भी लिखा गया था। देखकर भावविभोर होती और सोचती आखिर मेरा आशियाना बन ही गया। बडी़ मेहनत और जद्दोजहद के साथ अपना घर सजाती।
परन्तु खुशियां कहां टिकती है हमेशा। पति की आकस्मिक मौत ने उसे झंझोड़ दिया। रिंकी की शादी हो गई थी और रंजन शादी के बाद बेंगलुरु नौकरी के कारण रहने लगा था। पापा के जाने के बाद मम्मी घर में अकेली रहे यह रंजन को गवारा नहीं था। वह मां को अपने साथ बैंगलोर ले गया, बैंगलोर में नेहा का मन नहीं लगता था सो कभी-कभी इंदौर अपने घर आ जाती थी। लेकिन अब उसे वह भी मुश्किल लगने लगा था, उम्र ने दस्तक देनी शुरू कर दी थी। आना जाना मुश्किल लगने लगा था।
रंजन आया और कहने लगा मां घर की कीमत अच्छी मिल रही है इसे बेच देते हैं, बेंगलुरु में ही रहेंगे। नेहा अपने आशियाने को किसी को सौंपने के विचार से ही कांप सी जाती थी। पर क्या करे, यह कैसी विडंबना है हाय रे विवशता! अकेली रह नहीं पाती और बेटा यहां रह नहीं सकता।
यह कहानी क्या अकेले नेहा की है? नहीं, सभी औरतों की यही कहानी है। हमारे समाज की व्यवस्था है। बेटे के घर रहना आसान नहीं है। बहुत समझौते करने होते हैं। जीवनशैली एकदम बदल जाती है।
नेहा सोचती रहती औरतों का कभी कोई आशियाना नहीं होता, पूरी उम्र झोंक देती है, घर को संवारने में बनाने में किंतु क्या?
जहां जन्म लेती हैं वह पिता का घर।
जहां शादी करके जाती है वह पति का घर।
जहां वह रहना चाहती है वह सपनों का घर।
और आखिरी वक्त में बेटे का घर ।
वाह री तकदीर!!
