प्रेम रंग
प्रेम रंग
आज होली है! शाम की चाय का वक्त है, खिड़की के पास बैठकर चाय की चुस्की लेते हुए दिमाग में होली की पुरानी तस्वीर आ जाती है, सोचने लगती हुं- आज रास्ते कैसे सुनसान लग रहे हैं, कोई शोर नहीं, कोई रंग-बिरंगे लोग नहीं, रंगों के तालाब नहीं। सभी व्यस्त हैं शायद, रंग जीवन से कहीं खो गए हैं। लाल गुलाबी चेहरे, हंसते खिलखिलाते, यहां से वहां दौड़ते भागते नजर आते थे ।सभी त्योंहार मोबाइल में ही सिमट गए हैं आजकल, बधाई संदेश भेज दो और निश्चिंत हो जाओ, कोई परेशान नहीं करेगा। फाग जैसा रंगमय उत्सव रंग बिरंगे फोटो में ही सिमट गया है।
अचानक मेरी तंद्रा टुटी तो सामने वाले घर से मिसेज शर्मा की आवाज आई एमनिशा घर पर क्या कर रही हो? चलो हमारे साथ, शुक्ला जी के घर पर आज होली का कार्यक्रम है, गाने बजाने का कार्यक्रम है, चलो मन बहल जाएगा।" मैंने सोचा चलो चलते हैं, यहां क्या कर रही हुं, उदासी ही घेरे हुए है। मैं तैयार होकर मिसेज शर्मा के साथ शुक्ला जी के घर चल पड़ी।
आशीष घर पर थे नहीं आफिस के काम से दिल्ली गये हुए हैं तो कोई चिंता नहीं थी।
मिसेज शुक्ला के घर पर तो क्या
होली की महफिल जमी थी! भांग, ठंडाई, खाना पीना, ढोलकी, गाने का बंदोबस्त अच्छी महफिल जमी हुई थी। ढोलक की थाप पर सभी थिरक रहे थे थिरक क्या नाच रहे थे। होली का उन्माद जो छाया था।
मिसेज शुक्ला ने हमारा स्वागत किया, गुलाल का टीका लगाया और कहने लगी अजी हम तो त्यौहार का लुफ्त उठा ही लेते हैं, आइए मिलकर धूम मचाते हैं।
स्वादिष्ट ठंडाई पिलाई जा रही थी, जितनी मर्जी पियो और भांग चाहिए तो मिला लो। मन तो मेरा भी कर रहा था पर मैंने संकोच वश लिया नहीं। बहुत मजा आ रहा था, हंसी ठिठोली के साथ चुटकुले भी चल रहे थे। होली के सभी फिल्मी गानों के साथ नाच गाना चल रहा था। सुबह से मैं जो चाह रही थी अभी यहां सब कुछ था। मन को थोड़ा सुकून हुआ कहीं तो संस्कृति और उत्सव है। बहुत आनंद लिया कार्यक्रम का और उसके बाद स्वादिष्ट खाने का भी। घर लौट रही थी तो मन में *वाजिद अली शाह* की ठुमरी चल रही थी।
मेरे कान्हा जो आए पलट के,
होली खेलूंगी मैं डट के,
उनके पीछे चुपके से जाके,
रंग दूंगी उन्हें भी लिपटा के।
