आक्रोश पानी की बूंदों का
आक्रोश पानी की बूंदों का
वक़्त बदल चुका था, और प्रचलित धारणाएं भी। स्वाति नक्षत्र का इंतज़ार खत्म हो चुका था, आकाश से गिरने वाली बूंदों की ओर खेतिहरों का टकटकी लगाए देखना----
काले मेघा पानी दे, पानी दे गुड़ धानी दे, सूखी धरती पानी के लिए आकाश पर आश्रित, कदली पत्रों को भी इंतजार वर्षा का, कब उन पर ये ओस की बूंदें गिरें और चमक उठें। खुला सीप का मुंह बाट जोह रहा था, स्वाति नक्षत्र की उस बूंद का जो उस के गर्भ में गिरे और मोती बन जाये।
सब्र के पैमाने छलक उठे थे, इस बार ये बूंदें गिरी थी एक नहीं लाखों कृषकों की आंखों से। और उमड़ती घुमड़ती ये बूंदें मानो परिवर्तित हो चुकी थी एक विशालकाय सागर की क्रोध से दग्ध उत्ताल तरंगों में।
क्रोध की गर्मी उन्हें उड़ाए लिए जा रही थी मदान्ध आकाश और उमड़ती घुमड़ती नकली काली बदलियों की ओर----
वो बूंदें परजीवी नहीं है, धरती से उठी हैं-----
आकाश पर छा जाएंगी, और अहंकारी आकाश की उठी गर्दन को झुकाएंगी।
हाँ! हाँ!! आकाश को सीखना ही होगा, की ये बूंदें धरती की संपत्ति हैं जिन्हें वो बड़ी कुशलता से चुरा लाया था, वो उन बदलियों को पुनः धरती पर लाएंगी।
