आखिर कब उठेंगे
आखिर कब उठेंगे
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मेजर ध्यानचंद सिंह भारतीय फील्ड हॉकी के भूतपूर्व खिलाडी एवं कप्तान थे। उन्हें भारत एवं विश्व हॉकी के क्षेत्र में सबसे बेहतरीन खिलाडियों में शुमार किया जाता है। वे तीन बार ओलम्पिक के स्वर्ण पदक जीतने वाली भारतीय हॉकी टीम के सदस्य रहे हैं जिनमें १९२८ का एम्सटर्डम ओलोम्पिक, १९३२ का लॉस एंजेल्स ओलोम्पिक एवं १९३६ का बर्लिन ओलम्पिक शामिल है। उनकी जन्म तिथि को भारत में "राष्ट्रीय खेल दिवस" के तौर पर मनाया जाता है |
माना की खेल में हार-जीत के कोई मायने नहीं होते, लेकिन क्या ओलंपिक में हारने का ठेका भारत का ही है. राजनीति में खेल के चलते खेलों में राजनीतिक कारगुजारियों के बीच ओलंपिक विक्ट्री स्टैंड पर भारतीय प्लेयर्स का ना होना अफसोसजनक बात है. खेलों में करोड़ों खर्च करने वाले खेल विभाग का क्या मतलब है. ऐसे में खेल मंत्रालय का नाम बदलकर क्रिकेट मंत्रालय कर दिया जाना ही बेहतर होगा. कम से कम दुनिया में इज्जत तो बनी रहेगी. खेल मंत्रालय और चयन समिति में गड़बड़ी के साथ ही प्लेयर्स की कमियां बड़े मुकाबलों में ही खुलकर सामने आ जाती है. छोटी-छोटी जीत पर इतराने वाले अकसर बड़े मैदान में झटका खा जाते हैं. घर के शेर घर से निकलते ही शिकारियों के जाल में फंस जाते हैं. दुनिया जीतने के इरादे और सोच को पक्षपातपूर्ण रवैये के साथ साकार नहीं किया जा सकता है. सिस्टम की खामियों का रोना रोने वालों को समझना होगा कि सिस्टम भी हमारा है और उसको चलाते भी हमारे अपने ही है. साथ ही समझना होगा जीतने वाले कोई आसमान से नहीं टपकते है. दिल को तसल्ली देने वाले कह सकते है कि गिरते है अकसर घुड़सवार ही मैदाने जंग में. ऐसे में अगर भारतीय प्लेयर्स गिरते ही रहेंगे तो आखिर उठेगें कब. हां कभी-कभार सिंधु और साक्षी जैसे प्लेयर्स इस सिस्टम को ठुकराते हुए कामयाबी हासिल कर लेता है, तो यह उसकी व्यक्तिगत मेहनत और प्रयासों का नतीजा ही होता है. ऐसे में सिर्फ धनाढ्य वर्ग के युवा ही खेल सामग्री का खर्च वहन कर पाते हैं, इसके इतर गरीब प्रतिभाएं तो उभरने से पहले ही दम तोड़ जाती हैं. ओलंपिक हो या अन्य कोई खेल का मैदान भारतीय खिलाडिय़ों के साथ-साथ खेल अधिकारियों को समझना होगा कि सफलता रातोंरात नहीं मिलती. इसके लिए ईमानदार कोशिश की दरकार होती है. खिलाडिय़ों को विश्व स्तरीय प्रतियोगिताओं के विश्व स्तरीय सुविधाएं मुहैया कराना खेल मंत्रालय की जिम्मेदारी बनता है, सिर्फ बयानबाजी से पदक हासिल नहीं किए जा सकते है. भारतीय खेल मंत्रालय को अपनी नीतियों में आमूलचूल परिवर्तन करने की आवश्यकता है.