Dhan Pati Singh Kushwaha

Inspirational

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Dhan Pati Singh Kushwaha

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आज के बच्चे-कल का भविष्य

आज के बच्चे-कल का भविष्य

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"बस दो मिनट पापा, मैं  अभी आया"-पिछले एक घंटे से मेरे सामने वाले घर से वर्मा जी के बेटे श्रवण की आवाज़ आ रही थी।

 

हर दस मिनट के अंतराल पर वर्मा जी आवाज़ लगाते-"बेटा फोन छोड़ दे और आकर खाना खा ले।"

हर अगले अंतराल पर वर्मा जी की आवाज़ में तल्खी बढ़ रही थी। हर बार की तरह श्रवण फोन पर अपने गेम में खोया हुआ वहीं रटा-रटाया जवाब देता।

श्रीमती वर्मा खिसियाकर चीखते हुए बोलीं-" इस लड़के ने तो फोन और गेम के चक्कर में आँखों का इतना नुकसान कर लिया है फिर भी इसे समझ नहीं आता।"


आज तकनीक और आधुनिकता के साथ अपनी अमीरी का प्रदर्शन करते हुए माता - पिता अपने बच्चों के हाथ में मोबाइल लैपटॉप जैसे इलेक्ट्रॉनिक गैजेट दे देते हैं। वह उनकी देखभाल या निगरानी का भी विशेष प्रयास नहीं करते । ऐसा लगता है कि वे ये गैजेट्स बच्चों को लेकर अपनी जान छुड़ा रहे हों। इससे उस बच्चे के शारीरिक,मानसिक,बौद्धिक, सामाजिक और आध्यात्मिक विकास पर कितना दुष्प्रभाव पड़ेगा? वे इस तथ्य की ओर चिंतन-मनन करना तो दूर व इस बारे में सोचते तक नहीं। आज भौतिक संसाधनों को जुटाने की दौड़ में माता- पिता दोनों में से किसी के पास अपने बच्चों की देखभाल के लिए समय निकालना मुश्किल होता है। मीडिया में कई बार ऐसी खबरें आती हैं कि बच्चों की मानसिकता विकृत हो रही है। वे विभिन्न बुरी आदतों के शिकार होकर अपना तथा दूसरों का भारी नुकसान करते हैं। इसका कारण यही है कि बचपन से ही बच्चे को आया के सहारे छोड़ दिया जाता है। माता-पिता बच्चे को जन्म देने के बाद उनकी परवरिश का भी अपना धर्म तक ठीक ढंग से नहीं निभाते। उनके पास एक ही जवाब होता है कि हमें तो काम इतना ज्यादा है कि फुरसत ही नहीं मिलती है और फिर यह काम भी तो हम अपने इन बच्चों के स्वर्णिम भविष्य को बनाने के लिए ही कर रहे हैं।कई बार जब स्थिति हद से ज्यादा खराब हो जाती है तब वे पछताते हैं लेकिन तब तक बहुत ज्यादा देर हो चुकी होती है।

उत्तर रामायण के उस एपिसोड में जिसमें शत्रुघ्न लवणासुर से युद्ध करने के लिए प्रस्थान करने वाले होते हैं तो प्रभु श्री राम उन्हें एक शक्ति प्रदान करते हैं। शक्ति प्रदान करने से पहले वे शत्रुघ्न को यह चेतावनी भी देते हैं कि यह एक अत्यधिक विनाशकारी अस्त्र है। जिसके प्रयोग से इस चराचर जगत की बहुत बड़ी क्षति होने की संभावना होती है। इसका प्रयोग विशेष परिस्थिति में ही किया जाना चाहिए।समाज के वैरी के समापन की अनिवार्यता को लक्षित कर किए जाने वाले युद्ध में जब जीवन -मरण का संकट दृष्टिगोचर हो रहा हो केवल ऐसी स्थितियों में ही इसका प्रयोग किया जाना चाहिए। प्रभु श्रीराम कहते हैं कि उन्होंने स्वयं भी त्रिलोक विजयी रावण के साथ किए गए युद्ध में भी उसके वध के लिए इस शक्ति का प्रयोग नहीं किया था।श्रीराम ने अपने अनुज शत्रुघ्न जिसने उनके साथ-साथ एक ही गुरुकुल में एक ही गुरु वशिष्ठ जी के सानिध्य में शस्त्र ,शास्त्र ,राजनीति ,अध्यात्म के साथ विविध शिक्षाएं एक साथ ही ग्रहण की थीं अर्थात शत्रुघ्न स्वयं एक परिपक्व व्यक्तित्व के स्वामी थे फिर भी प्रभु श्रीराम ने शिक्षा देकर आगाह करने का अपना धर्म निभाया ताकि किसी त्रुटि संभावना न रहे। जीवन किसी फिल्म का दृश्य नहीं कि ग़लती होने पर इसे दोबारा शूट कर लिया जाएगा। शक्ति अर्जित करने से से ज्यादा आवश्यक है उस शक्ति के उचित प्रयोग का विवेक होना।


हमारे देश में गाड़ी चलाने के लिए निर्धारित अठारह वर्ष की उम्र न पूरी करने वाले बच्चे भी सड़कों पर मोटरसाइकिल, स्कूटी या कार लिए निकल पड़ते हैं। इस उम्र में उनके पास लाइसेंस तो हो ही नहीं सकता क्योंकि ड्राइविंग लाइसेंस अठारह वर्ष की उम्र पूरी कर चुके वयस्क को ही दिया जाता है। इस स्थिति में ऐसा बच्चा एक आत्मघाती आतंकवादी की तरह होता है जो स्वयं के साथ दूसरों के जीवन से खेलने के लिए एक बड़ा खतरा होता है।


वर्मा जी के इसी श्रवण की तारीफ करते हुए एक साल पहले तक श्रीमती वर्मा थकती नहीं थीं-"मेरा शर्रू तो अभी से इतनी तेज गाड़ी चला लेता है कि अच्छे-अच्छे भी न चला पाएँ।"


वह तो एक साल पहले उसने सड़क पर डिवाइडर पर ऐसी टक्कर मारी कि गाड़ी को जबरदस्त नुकसान हुआ। वह तो ईश्वर की दया-दृष्टि का प्रताप समझिए कि वह दो दिन तक आई.सी.यू.में जीवन-मौत से जूझने के बाद ठीक होकर घर आ गया। जिस व्यक्ति को टक्कर लगी उसके सारे इलाज के खर्च के साथ उसे काफी पैसा देने के बाद जान छूटी। इसके बाद ही श्रवण की उद्दण्डता में कुछ कमी आई। नवोदित अमीरों के इकलौते बच्चों की ऐसी हरकतें आमतौर देखने-सुनने को मिलती रहती हैं।


अमेरिका जैसे देश में बंदूक रिवाल्वर आदि के प्रयोग से होने वाली दुर्घटनाएं कई बार समाचार की सुर्खियां बनती हैं।बहुत बार ऐसी खबरें आती हैं कि किसी बंदूकधारी ने अंधा धुंध गोलियां चलाकर कई लोगों को मौत के घाट उतार दिया। कई बार यह खबर भी आई कि किसी छात्र ने स्कूल में ही गोली चला दी।


भारतीय परंपरा में शास्त्र की शक्ति का प्रयोग विविध अनुसंधानों में प्राचीन काल से किया जाता रहा है। वस्तुतः प्राचीन काल में विभिन्न ऋषियों के आश्रम वैज्ञानिक प्रयोगशालाएं ही थीं और उसने यज्ञ आदि का अर्थ प्रयोगशालाओं में समाज के कल्याण के लिए उपयोगी अनुसंधानों से ही था। भारतीय ऋषि मुनि अपने आश्रम में व ऐसी सभी गतिविधियां चलाते थे जिससे प्रकृति और पर्यावरण का सतत् संरक्षण होता रहे। संपूर्ण समाज के लिए उपयोगी सिद्धांतों का अनुसंधान भी होता रहे। लोगों के स्वास्थ्य की रक्षा के लिए और विविध व्याधियों के उपचार के लिए के लिए आयुर्वेद में नित्य नई औषधियों का अनुसंधान एवं अन्वेषण होता रहता था। विप्र अर्थात विशेष प्रयोजन के लिए कार्यरत लोग शास्त्रों के ज्ञाता के रूप में समस्त समाज के कल्याण के लिए सिद्धांतों की खोज करते और संबंधित राजा समाज के कल्याण के लिए उन सिद्धांतों को लागू करते थे। समाज का वह वर्ग जो समस्त समाज को वह आक्रमणों से सुरक्षित रखते थे उन्हें क्षत्रिय कहा गया। समाज के भरण-पोषण के लिए जो कार्य व्यवसाय अपनाते थे उन्हें वैश्य तथा समाज की इन सब कार्यों में जो सहायक की भूमिका निभाते थे उन्हें सेवक अर्थात शूद्र कहा गया। समाज का हर वर्ग अपने अपने लिए निर्धारित कार्य को बड़ी ही लग्न और ईमानदारी के साथ पूरा किया करता था।


आज छोटे बच्चे भी मोबाइल आज का ऑनलाइन अध्ययन में प्रयोग कर रहे हैं। उनमें यह समझ विकसित करने की परम आवश्यकता है कि इनके प्रयोग की क्या-क्या सीमाएं हैं?

कोई भी शक्ति प्राप्त करने के साथ-साथ उसके उपयोग की विधिवत जानकारी भी होनी अधिक आवश्यक है। शक्ति का उपयोग हमेशा ही कल्याणकारी सकारात्मक कार्यों के लिए किया जाना चाहिए।कहा भी गया है-

" विद्या विवादाय धनम् मदाय शक्ति परेशा परपीडनाय। खलस्य साधौ विपरीत बुद्धि ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय।।"

इसका अर्थ यह है कि दुष्ट व्यक्ति की विद्या विवाद के लिए ,धन घमंड करने के लिए और शक्ति दूसरों को पीड़ा पहुंचाने के लिए होती है जबकि सज्जन व्यक्तियों का इससे उल्टा व्यवहार होता है। उनकी विद्या ज्ञान के लिए, धन पर हित में दान के लिए और शक्ति दूसरों की रक्षा के लिए होती है।


आज समाज में लोग अपने ऐश्वर्य को दिखाते हैं। नैतिकता का अभाव सा दृष्टिगोचर हो रहा है। बच्चों में बचपन से ही संस्कार दिए जाने की परम आवश्यकता है जिसका आज के समाज में कहीं लोप सा हो रहा है। भौतिकता के इस युग में नैतिकता लुप्त हो रही है।बड़ों के आचरण का बच्चों पर प्रभाव पड़ता है अगर अपवादों को छोड़ दिया जाए तो ज्यादातर बच्चे अपनी इन अच्छी या बुरी आदतों को घर से ही सीखते हैं ।कुछ समाज के वातावरण का भी प्रभाव उन पर पड़ता है। नकारात्मकता का आकर्षण ही कुछ ऐसा होता है कि उसकी चमक-दमक सिर्फ आकर्षित होकर बच्चे उस कुमार्ग पर चल पड़ते हैं हैं जिससे उन्हें बच कर रहना चाहिए था।


हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए ना तो सभी बच्चे ही ऐसे हैं और न ही माता-पिता । बहुत से बच्चे अपने घर की विषम परिस्थितियों से जूझते हुए अपना मार्ग बनाते हैं जो दूसरों की प्रेरणा का स्रोत और अनुकरणीय होता है। बहुत से माता-पिता बड़ी ही मेहनत करके और और बड़े ही यत्न के साथ नियोजित साथ अपने बच्चों का लालन -पालन करते हैं और सदा उनको सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते रहते हैं और इसमें वह सफल भी होते हैं।


किसी की भी बाल्यावस्था हमारे किसी दिन प्रभात की भांति होती है। अक्सर हम देखते हैं कि यदि हमारा सवेरा यदि ठीक योजना के अनुसार शुरू होता है तो पूरा दिन अच्छा गुजरता है और इसी कारण किसी भी दिन सवेरे ही कुछ गड़बड़ हो जाए तो वह पूरा दिन ही खराब हो जाता है ।इसी प्रकार किसी भी व्यक्ति का बचपन यदि सुधर गया तो उसका पूरा जीवन अच्छा गुजरता है यदि बचपन में ही किसी भी कारण से कुछ गड़बड़ हो जाए तो उस व्यक्ति का पूरा जीवन गड़बड़ होने की पूरी संभावना रहती है। इसीलिए हर काल में समाज के बच्चों के विकास का पूरा ध्यान रखा जाता है क्योंकि किसी भी देश का भविष्य बच्चों पर निर्भर करता है ।आज के बच्चे आने वाले कल के नागरिक होते हैं जो समाज को नई दिशा देते हैं । परिस्थिति खराब होने से हमें घबराना नहीं चाहिए। दुनिया में अपवाद भी होते हैं तभी तो कहा गया है जब जागो तभी सवेरा।


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