Moumita Bagchi

Drama Romance

4.4  

Moumita Bagchi

Drama Romance

आभासी दुनिया का प्रेम!

आभासी दुनिया का प्रेम!

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ऑफिस के काम से दिन भर की थकी हारी विजया ( असली नाम नहीं है) जब घर आती है तो उसे ऐसा लगता है कि मारे थकान के उसके शरीर के सारे कलपुर्जे ढीले हो गए हैं। उसे अपना डिनर तक बनाने का मन नहीं कर रहा था ।सोचने लगी कि आज मैगी से ही काम चला लेगी। किसी तरह किचन में एक कप चाय बनाकर वह थोड़ा मन बहलाव के लिए जैसे ही लैपटाॅप से अपने फेसबुक अकाॅउंट में लाॅग इन करती है । तुरंत मेसैंजर में एक मेसैज पाॅप आॅप होता है---

" हाय"

यह किसी सौरभ का मेसैज था जिसकी फ्रेंड्स रिक्वेस्ट विजया ने एक दिन पहले ही अक्सेप्ट की थी।

" हैलो, हाउ आर यू?"

"मैं ठीक हूं। और आप? मेरी रिक्वेस्ट एक्सेप्ट करने के लिए बहुत आभारी हूं।"

"जी, मैं भी ठीक हूं। अरे! धन्यवाद जैसी कोई बात नहीं है।"

फिर विजया ने पूछा--- " आपके पोस्ट्स पढ़कर अच्छा लगा। काफी अच्छा लिखते हैं! लेखक हैं क्या आप?"

" धन्यवाद मैम! मेरी पोस्टों को ध्यान से पढ़ने के लिए , बहुत शुक्रिया। जी , मैं शौकिया तौर पर एक लेखक हूं । वैसे एक प्राइवेट स्कूल का शिक्षक भी हूं।"

" विजया, आप क्या करती हैं? अरे, पूछना भूल गया, क्या मैं आपको विजया कह सकता हूं?"

"जी, क्यों नहीं। मैं एक सरकारी दफ्तर में एसीसटेंट हूं।"

इस तरह उन दोनो की जान पहचान फेसबुक पर हुई और ऐसे ही बातों का सिलसिला आरंभ हुआ। परंतु जल्द ही रोज ऑफिस से आकर एकबार फेसबुक मैसेन्जर झाॅकना विजया की आदत बन गई। वह महसूस करने लगी कि उसे सौरभ के साथ यों बातचित करना भा रहा था और संयोगवश उसी समय सौरभ भी उसे ऑनलाइन मिल जाया करता था। उसे वह उन लोगों से अलग लगा जो कि केवल टाइमपास के लिए अथवा किसी और उद्देश्य से लड़कियों से दोस्ती करना चाहते हैं। वह जब भी चैट करता था बड़े अदब के साथ उससे पेश आता था। अनावश्यक विजया की निजी जिन्दगी के प्रति उसने कभी भी कोई कौतूहल नहीं दिखाई थी। साथ ही आवश्यक्ता पड़ने पड़ वह उसे नेक सलाह भी देता था। उससे बात करके मानो विजया का दिन भर का थकान मिट जाता था और चित्त को बड़ा सुकून मिलता था। दोनों देर रात तक अकसर चैटिंग करते रहते। परंतु उनमें से किसी ने भी कभी अपनी शराफत की सीमा लांघने की कोशिश न की।

दो हफ्ते बाद

" अच्छा विजया ,आपकी हाॅबीस् क्या क्या है? मतलब कि आप खाली समय में क्या करती हैं?"

"मुझे खाना बनाने का शौक है और थोड़ा बहुत गा भी लेती हूं।"

" खाना और गाना--- बहुत ही अच्छा तालमेल है दोनो का।"

" ..."

"अच्छा आप बताइए कि आपको पढ़ाना कैसा लगता है? बच्चे तंग नहीं करते क्या आपको ?"

" नहीं,बच्चे तो बहुत ही मासूम होते हैं। थोड़ा बहुत शैतानी करते जरूर है, पर मैं अनदेखा कर देता हूं। वे मुझे बहुत पसंद करते हैं क्योंकि मैं दूसरे टिचरों की तरह जो उन्हें मारता पीटता नहीं हूं।"

"अब आप भी अपने जाॅब के बारे में कुछ बताइए।"

" जी, मेरी वही 9 से 6 तक का जाॅब है । डेस्क में बैठकर कम्प्यूटर पर काम करना होता है , ढेर सारा टाइपिंग का काम , प्रिंट आउट लेना , फाइल्स बनाना, मेल भेजना, कभी कभी प्रेजेन्टशन्स भी तैयार करना होता है।"

फिर सौरभ ने अचानक पूछा,

" अच्छा यह बताइए कि आपके प्रोफाइल पर कोई पिक क्यों नहीं हैं? केवल फूल लगा रखे हैं?"

यही वह सवाल था जिससे विजया कतराती थी।

" जी, मुझे फूल बहुत पसंद है।" कहकर विजया इस प्रश्न को

टाल गई।

"अच्छा कोई बात नहीं। बुरा मत मानिएगा, मैंने यूं ही पूछ लिया।"

सौरभ ने भी इससे ज्यादा पूछना मुनासिब न समझा। फिर बात को बदलते हुए उसने पूछा,

"अच्छा यह बताइए आज आपने डिनर में क्या बनाया?"

आज विजया का डिनर बनाने का फिर से मन नहीं हो रहा था। अपने हाथ पैरों में इतनी थकान वह महसूस कर रही थी कि उसका आज उठने का मन भी न हो रहा था।

" नहीं नहीं, यह बिलकुल भी अच्छी बात नहीं है--- इस तरह न खाने से आप कमजोर हो जाएंगी। और फिर कल आपको काम पर जाना है कि नहीं?"

सौरभ ने बड़ी मिन्नत करके आखिर उसे किचन में पहुंचा ही दिया।

जब से वह हादसा हुआ था उसके परिवार वालों और दोस्त सभी ने विजया का साथ छोड़ दिया था। कोई पूछने वाला भी न था उसे। मानों उस घटना के लिए वह खुद ही जिम्मेदार थी!! आज बरसों बाद इस तरह किसी ने उससे आत्मीयपन जताया था तो विजया को बड़ा ही अच्छा लगा।

उसदिन उस हादसे के बाद से विजया अपने आफिस से मिले इस क्वार्टर्स में रहने चली आई थी। पर यहाॅ भी उसके दोस्त कोई न था। सब उसके कलीग होने के बावजूद भी उसे देखकर कन्नी काट लिया करते थे।तब से विजया अकेली ही जी रही थी। सिर्फ रोज आफिस वह चली जाती थी। बिलाबजह कभी इस बात में वह नागा न करती थी।

उस अकेली को घर में ज्यादा काम भी न था। हर रविवार को वह हफ्ते भर का सारा सामान खरीद लिया करती थी। फिर खाली समय काटने को दौड़ता था। भला हो मार्क जुकरवर्ग का जिसने उन जैसों के लिए समय बीताने का ऐसा नायाब एप आविष्कार किया है। अब आभासी दुनिया के दोस्तों के साथ कब दिन का रात हो जाता है पता ही नहीं चलता। ये पराए लोग ही उसके लिए अच्छे हैं । कम से कम ये लोग हर वक्त उसका मूल्यांकन तो नहीं किया करते।

उसके बचपन के सारे दोस्त उसे सालों बाद फिर फेसबुक पर मिल गए थे।

दो महीने बाद!

अब सौरभ के साथ उसकी अच्छी दोस्ती हो गई थी। वे दोनो दो महीने से लगातार चैट कर रहे थे। अपनी दिनचर्या एक दूसरे के साथ शेयर करके उन्हें आनंद आता था। दोनों के ख्यालात भी काफी मिलते थे। और दोनों एक दूसरे के पसंद नापसंद से वाकिफ हो चुके थे अबतक। सौरभ खाने का शौकिन था। वह जो भी पकवान बनाती सौरभ को उसका फोटो जरूर भेजती। कहते हैं कि मर्दों के दिल का रास्ता उनके पेट से होकर जाता है। सौरभ भी कुछ ऐसा ही महसूस कर रहा था विजया के लिए।

" मैं एकदिन आपके हाथों से बना इन स्वादिष्ट पकवानों को चखने जरूर आउंगा। आप मुझे बनाकर खिलाएंगी न?" वह कहता

" जी जरूर।"

पर इसके आगे विजया ने कुछ न कहा।

उसके पेट में भी उस वक्त तितलियाॅ उड़ने लगी। अपनी मजबूरी से वाकिफ वह अपने मन में सौरभ के प्रति उमड़ते भावनाओं को दबाने लगी।

छः महीने बाद

एकदिन शाम को सौरभ लिखता है--

"मैं परसो शनिवार को आपके शहर आ रहा हूं। क्या आप मुझसे मिलना पसंद करेंगी, विजया।"

विजया खुशी से एकबारगी चहक उठी। उसका भी काफी समय से सौरभ से मिलने का मन हो रहा था। वह "हाॅ " लिखने ही वाली थी। तभी अचानक याद हो आया उसे सबकुछ।

उसने बात टालने के लिए कहा--

" शनिवार और रविवार को मेरे ऑफिस में एक काॅनफारेंस है।माफी चाहूंगी कि मैं नहीं आपसे इसबार न मिल पाउंगी।"

" खैर, कोई बात नहीं।" सौरभ ने उत्तर दिया।

"एक बात कहना चाहूंगा, मैंने कभी आपको देखा तो नहीं परंतु मेरा मन कहता है कि आप बेहद खूबसूरत हैं। अंदर से भी और बाहर से भी।"

----------- इसपर विजया मौन रही।

फिर इस विषय पर सौरभ ने कभी कुछ न कहा।

पर और सब विषयों पर उनकी चैटिंग का सिलसिला चलता रहा।

अब दो साल से वे चैट कर रहे थे। और दोनों एक दूसरे के दिल के बेहद करीब पहॅच चुके थे। सौरभ विजया के बारे में लगभग सबकुछ जान चुका था सिवाए इसके कि वह मिलना क्यों नहीं चाहती थी। उसका कौतुहल इसबात पर बढ़ता ही गया। हो न हो जरूर कोई बात है! विजया का पास्ट ( पिछली जिन्दगी )उसे ऐसा करने से रोक रही थी। वह अबतक विजया का असली नाम भी जान चुका था।

इसके कई महीने बाद एक दिन रविवार को, छुट्टी के दिन सुबह विजया देर तक सोकर उठी। करीब दस बज रहे थे। चाय का प्याली हाथ में लेकर वह अखबार निकालकर गैलरी में आकर बैठी थी। वह अभी तक रात-पोषाक में ही थी और अलसाई सी अखबार के पृष्ठों को पलट रही थी कि तभी डोरबेल बज उठा।

कूड़ेवाला समझकर हाथ में कूड़े का थैला लिए उसने जैसे ही दरवाजा खोला , नवागंतुक के चेहरे को देखते ही वह ठिठक गई।

" मैम, मैं सौरभ हूं, आपका फेसबुक फ्रेंड! इस तरह अचानक आ धमकने के लिए माफी चाहता हूं।"

यह कहते कहते सौरभ समझ चुका था कि क्यों विजया को किसी से मिलना नापसंद था।

कुछ क्षण मौन खड़े रहने के बाद विजया सौरभ को अंदर आने को कहती हैं।

फिर अंदर कमरे में जाकर अपना तेजाब से झुलसा हुआ चेहरा एक दपट्टे से ढककर और बरबस ढूलक पड़े आंसुओं के कुछ बूंदों को पोछकर जब वह पुनः बाहर आती हैं तो वह कोई और ही औरत थी। क्षणिक विह्वलता को त्यागकर वह अब सच का सामना करने को पूरी तरह से तैयार थी।

इतनी देर में सौरभ ने भी अपने आपको संभाल लिया था। वह लेखक था इसलिए अंदर से बहुत ही संवेदनशील इंसान था। उसने जान लिया कि सारिका ( विजया का असली नाम) ( दोनो ने ही अपनी पहचान दुनिया से छुपाने के लिए दूसरे नाम से एकाॅउंट खोला था।) ने कैसे कैसे दर्द को झेला है। वह उसके लिए बेहद दुःखी था और रो भी चुका था इतनी देर तक। उसने हाथ पकड़कर सारिका को सोफे पर बैठाया और बेहद संजीदगी से बोला --

" मैं समझ सकता हूं आपका दर्द, सारिका। आप मुझे अपना सच्चा हमदर्द मान सकती हैं।"

जब सारिका कुछ कहने के लिए अपना मुंह खोलती हैं तो विवेक ( सौरभ का असली नाम) कहता है--

" कुछ भी कहने से पहले आप मेरा भी एक सच जान लीजिए।"

फिर वह अपनी पतलून की दोनों टांगों को ऊपर करता है तो हतवाक् सारिका अपने विस्फारित नेत्रों से देख पाती है कि उसकी दोनों टांगे नकली है।

यह देखकर सारिका जोर से रो पड़ी थी। दोनों में किसी को कुछ भी कहने को न सूझा थोड़ी देर तक। तब विवेक अपने स्थान से उठकर सारिका के बिलकुल पास आकर बैठ गया। फिर उसका हाथ अपने हाथों में लेकर बोला---

" इस समय आप जैसा महसूस कर रही है, ठीक वैसा ही हाल मेरे दिल का भी है। मैं न कहता था कि आप वाकई खूबसूरत है, अंदर से भी और बाहर से भी। अगर मैं आपको पसंद होउ तो मैं आजीवन आपका साथ और ये दो हाथ मांगना चाहता हूं।"

विवेक के कहने के अंदाज से सारिका हँस पड़ी। फिर दोनों ने एक दूसरे को कसकर गले से लगा लिया।

थोड़ी देर बाद विवेक बोला---

" सारिका, आप तो बड़ी आलसी निकली!! घर आए मेहमान को आपने अब तक पानी भी नहीं पूछा। बड़ी चेफ़ बनी फिरती हैं !"

इतना सुनने के बाद सारिका से और बैठा न गया और वह झटपट किचन की तरफ भागती हुई बोली---

" अभी लाती हूं।"



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