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Abstract Classics Inspirational

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04 - जागो मोहन प्यारे

04 - जागो मोहन प्यारे

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यह कोई बहुत पुराना किस्सा नहीं है—इतना पुराना भी नहीं कि इतिहास की धूल में गुम हो जाए, लेकिन इतना पुराना अवश्य है कि आज के वर्तमान पर उसका असर लगभग समाप्त हो जाना चाहिए था।

पर क्या सचमुच ऐसा हुआ?

क्या स्मृतियाँ इतनी आसानी से अपनी पकड़ छोड़ देती हैं?

लगभग तीस बरस पहले मैंने अपने लिए दुनिया की भीड़ से हटकर एक रास्ता चुना। क्यों चुना—यह प्रश्न अपने आप में एक लंबा अध्याय है, पर आज उसकी भूमिका नहीं बाँधूँगा। आज बात उस निर्णय की है, जिसकी गूँज आज भी कभी-कभी सुनाई दे जाती है।

सन् दो हज़ार के आसपास, जब पढ़ाई पूरी हुई और नौकरी की ज़मीन पर पहला कदम रखा, घर के आँगन में विवाह की चर्चा ने डेरा डाल लिया। मैंने अलग रास्ता चुन लिया था। लेकिन अलग रास्ता चुनना - यानी विवाह न करना और अगली पीढ़ी को जन्म न देना—एक बात है, और देह की ज़रूरतों को समझना और उनसे जूझना एक बिल्कुल दूसरी ।

दुनिया के लिए शायद यह विभाजन अर्थहीन हो, पर मेरे लिए यह फर्क हमेशा साफ़ रहा है।

उस समय का समाज आज जैसा नहीं था। सेक्स एक ऐसा अनुभव था जिसे विवाह की देहलीज़ के भीतर ही वैध माना जाता था। कुछ अपवाद ज़रूर रहे होंगे—कॉलेज की उम्र में पनपती दोस्तियाँ, छुपे-छुपे अनुभव - लेकिन बहुसंख्यक समाज के लिए देह की प्यास का एकमात्र दरवाज़ा विवाह ही था। और जब कोई विवाह से इनकार कर दे, तो समाज उसके लिए कोई वैकल्पिक रास्ता नहीं छोड़ता। बड़े शहरों में शायद कुछ खिड़कियाँ खुली हों, पर छोटे और मध्यम शहरों में - वहाँ सिर्फ़ बाज़ार था। खामोश, गुप्त और समझौतों से भरा हुआ बाज़ार।

मेरे विकल्प भी वहीं सीमित थे। समय बदला, पर निर्भरता नहीं टूटी - बस उसका रूप बदल गया। पहले एजेंट होते थे, सौदे होते थे, नक़द चलता था। आज एजेंट की ज़रूरत नहीं, पड़ोस ही बाज़ार बन गया है। कभी कैश, कभी गिफ्ट, कभी शराब, डिनर और किसी पब की सदस्यता - देह का व्यापार भी समय के साथ सभ्य और सहज हो गया है।

संक्षेप में कहूँ तो - जो बाज़ार कभी दूर और डरावना था, आज वह घर की चौखट तक आ पहुँचा है। लेकिन यह आज की बात नहीं है। आज का मुद्दा कहीं और है।
जब मैंने विवाह न करने का निर्णय लिया, घर में जैसे भूचाल आ गया। रिश्तेदारों की भौंहें तन गईं, संस्कारों की किताबें खुलने लगीं, और वंश की चिंता एक अचानक उभर आई त्रासदी बन गई।

यहाँ माँ-बाप अक्सर यह नहीं जानते कि वे बच्चे क्यों पैदा करते हैं। बच्चे योजनाओं से नहीं, परंपराओं से जन्म लेते हैं। मानो जीवन का उद्देश्य ही यही हो - पैदा होना, शादी करना, और अगली कड़ी जोड़ देना।

जब मैंने इस श्रृंखला को वहीं रोक देने का निर्णय लिया, तो मैंने सिर्फ़ विवाह से नहीं, पूरे वंश-तंत्र से विद्रोह कर दिया था।

मैं तब पच्चीस वर्ष का था - इतना वयस्क कि अपने निर्णय खुद ले सकूँ, इतना सचेत कि उनकी ज़िम्मेदारी भी उठा सकूँ। पर माता-पिता अक्सर यह स्वीकार नहीं कर पाते कि संतान उनकी प्रतिछाया नहीं होती। वे चाहते हैं कि अगली पीढ़ी उनकी ही सोच, डर और सीमाओं को ढोती रहे।

मेरे साथ भी यही हुआ। पहले दबाव, फिर भावनात्मक ब्लैकमेल, और अंत में यह निष्कर्ष - कि मुझ पर किसी ने जादू-टोना कर दिया है, ताकि वंश का दीपक बुझ जाए।
मैंने पूछा था - इस वंश ने कौन-सा बुद्ध, गांधी, या आइंस्टीन दिया है कि इसका चलना इतना अनिवार्य है?
सन्नाटा मिला।

फिर पूछा - अगर यह वंश खत्म हो जाए, तो क्या संसार थम जाएगा? 

फिर वही सन्नाटा।

लेकिन सन्नाटे के बीच मंत्र, मन्नतें और झाड़-फूँक जारी रहीं। जिस समस्या का हल सिर्फ़ स्वीकृति में था, उसे इतना बढ़ा दिया गया कि वह मेरे भीतर अवसाद बनकर बैठ गई।

ज़िंदगी के कुछ साल मैंने इसी खींचतान में गँवा दिए।
फिर एक दिन मैंने तय किया— अगर कोई अपना जीवन डर और भ्रम के नरक में बिताना चाहता है, तो वह उसका चुनाव है। मुझे उस नरक में उतरने की कोई बाध्यता नहीं।
उस दिन मैंने अपनी ज़िंदगी की डोर अपने हाथ में ले ली।
आज भी मंदिरों में दीये जलते हैं, गुरुद्वारों में अरदासें होती हैं, और झाड़-फूँक जारी है। पर मेरा नरक समाप्त हो चुका है, क्योंकि मैंने उसे देखने से इनकार कर दिया है।
यह उनका चुना हुआ संसार है - मेरा नहीं।

अधिकांश माता-पिता यही भूल करते हैं। वे बच्चों को जन्म देते हैं और फिर मान लेते हैं कि उनका जीवन भी उनका ही विस्तार है। जबकि सच यह है - पढ़ा-लिखाकर पैरों पर खड़ा करना उनकी ज़िम्मेदारी की अंतिम सीमा है। उसके आगे जीवन बच्चे का अपना होता है।

अधिकांश सी स्त्रियाँ भी इसी मानसिक नरक में जीती हैं— और उसी पीड़ा में पुरुषों को कोसती रहती हैं। यह उनका अपना नरक है, और उसमें किसी और को खींचने का उन्हें कोई अधिकार नहीं।

जागो मोहन प्यारे - अब समय है अपने जीवन की डोर अपने हाथ में लेने का। और जो नरक में रहना चाहता है, उसे वहीं छोड़कर निर्भय होकर आगे बढ़ जाने का फिर चाहे नरक में खड़ी महिला तुम्हारी मां हो पत्नी हो या कोई और , वो अपना चुनाव कर चुकी है तुम्हे आगे बढ़ना है ।

— आज़ाद परिंदा



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