03 - जागो मोहन प्यारे
03 - जागो मोहन प्यारे
किस्से चाहे कितने भी पुराने हों, कुछ ऐसे होते हैं जो समय की धूल झाड़कर बार-बार सामने आ खड़े होते हैं। और सच यह है कि किसी भी किस्से की शुरुआत वहीं से नहीं होती जहाँ वह सुनाई देता है; उसकी जड़ें कहीं बहुत भीतर, बहुत पीछे, बहुत पुरानी मिट्टी में दबी होती हैं। इसलिए इस किस्से की शुरुआत भी जड़ों से ही।
अस्सी और नब्बे का दशक… वह समय जब मैं स्कूल और कॉलेज के बीच एक ऐसे पुल पर खड़ा था, जिसके पार धुंधला-सा भविष्य पसरा था। उन दिनों मैं हर जगह आगे ही रहा—खेल का मैदान हो या परीक्षा के नतीजे। शायद इसी कारण दोस्ती का दायरा बड़ा था, चेहरों की भीड़ बहुत थी। लेकिन भीड़ के बावजूद एक अदृश्य-सी दूरी हमेशा मेरे और दूसरों के बीच रहती थी। तब यह दूरी समझ में नहीं आती थी; अब कई दशक बाद पता चलता है कि मन का गणित हमेशा सतह पर दिखाई देने वाली बातों से अलग होता है।
स्कूल-कॉलेज के वे दोस्त—जिनके साथ हँसते-खेलते उम्र का बड़ा हिस्सा निकल गया—आज पता नहीं कहाँ हैं। सब अपनी-अपनी दिशाओं में भाग गए। कभी-कभार किसी व्हाट्सऐप ग्रुप में पुराने नाम जगमगाते हैं, लेकिन उन नामों में वह अपनापन नहीं लौटता जिसे ‘रिश्ता’ कहा जा सके।
शहरों की धूल अपने पैरों में समेटते हुए, जब अंततः मैं एक जगह टिक गया, तब वहाँ दोस्ती का नया संसार बनना शुरू हुआ। नए शहर में नई पहचानें, नए चेहरे, नए अपनापन… इतने कि गिनना मुश्किल हो जाए। कुछ रिश्ते पेशे की जरूरतों से बने, कुछ दिल की सहजता से।
फिर एक दिन पिता चले गए। और अचानक होम टाउन की सारी जिम्मेदारी मेरे कंधों पर आन पड़ी। इस सच्चाई को स्वीकारना हमेशा कठिन रहा है, पर सच यही है कि यूनिवर्सिटी के बाद होम टाउन में मैं लगभग अकेला था। दोस्ती का एक भी मजबूत सहारा नहीं बचा था। इसलिए सोचना पड़ा—पुराने रिश्तों को जगाया जाए या नए बोए जाएं? और मैंने निर्णय लिया कि नए रिश्ते बनाना आसान होगा।
इन्हीं नए रिश्तों में एक दोस्त ऐसा मिला, जिसने सिर्फ मेरा साथ ही नहीं निभाया—मुझे मजबूती भी दी। वह हर समय, हर परिस्थिति में मेरे साथ खड़ा रहा। मैं चाहे किसी शहर में रहूं, होम टाउन की हर मुश्किल में सबसे पहले वही मेरे सामने होता।
मा को कुत्ते ने काट लिया—मैं दूर था; इलाज से लेकर इंजेक्शन तक सब उसने करवाया। खेत में विवाद हुआ—मैं मौजूद था; पर वह दो दिन तक मेरे साथ रहकर हर स्थिति संभालता रहा। उसकी मौजूदगी, उसकी ईमानदारी और उसका साथ—इन सबने गांव में मेरी ऐसी प्रतिष्ठा खड़ी कर दी कि लोग चाहे आपस में भिड़ते रहें, लेकिन मेरे खेत की ओर उठती निगाहें झुक जाती थीं।
शायद उसे मेरी उतनी जरूरत नहीं थी, जितनी मुझे उसकी। वह सिर्फ समस्याओं का समाधान नहीं था, वह मेरे मन का भार भी हल्का करता था। मा की छोटी-बड़ी बातों से जब मन भारी होता—केबल के मामूली पचास रुपये पर बदनामी हो या चौकीदार के पैसों को लेकर अनावश्यक आरोप—सबसे पहले फोन उसी को करता था। वह मेरा अटल आधार बन गया था।
हमारा साथ इतना मजबूती से जुड़ गया था कि हर शाम आठ बजे से लेकर रात ग्यारह बजे तक हम दोनों का समय तय हो गया था। घर लौटकर कई बातें सुननी पड़ती थीं, लेकिन जिंदगी जीने का मेरा तरीका वही रहा—कभी नहीं लगा कि रात आठ बजे सो जाना ही संस्कार या शराफ़त का प्रतीक है।
लेकिन धीरे-धीरे हवा बदलने लगी। मेरी अनुपस्थिति में वह दोस्त घर पर आकर थोड़ी-बहुत मदद कर जाता, और यही बात मेरे मन में उसके विरुद्ध बोई जाने लगी। जो छोटे-छोटे संदेह थे, वे एक दिन विशाल छायाओं में बदल गए। और फिर वह दिन भी आ गया जब वह रिश्ता—जो भाईचारे से भी गाढ़ा था—टूट गया। हम दोनों अलग हो गए। हमेशा के लिए।
जब पीछे मुड़कर देखता हूं तो महसूस होता है—होम टाउन में हर रिश्ते का अंत लगभग इसी तरह हुआ है। स्कूल का हो, कॉलेज का हो, यूनिवर्सिटी का हो—हर जगह बने रिश्ते किसी न किसी मोड़ पर दम तोड़ते चले गए। हर दम तोड़ चुके रिश्ते के पीछे लगभग एक ही कहानी दिखाई देती है, बात का बतंगड़ बना कर अलगाव का बीज बो देना और लगातार उसे पानी देते रहना जब तक कि पेड़ सुख न जाए ।
अब जहाँ मैं रहता हूँ, वहाँ भी शुरुआत में ऐसे ही संकेत मिलने लगे थे। लेकिन इस बार मैंने समय रहते खुद को बचा लिया। अब मैं अपने किसी दोस्त का परिचय घर के भीतर नहीं करवाता। इतिहास ने सिखाया है कि जैसे ही कोई दोस्त घर की दहलीज़ पार करता है, वैसा ही कोई अदृश्य हाथ रिश्ते का गला दबाने लगता है।
महिला चाहे जिस रूप में हो—मा, बहन या पत्नी—उसके पास यह विचित्र-सी शक्ति होती है कि वह चुपचाप, धीरे-धीरे, बिना आवाज़ किए रिश्तों के बीच अविश्वास के बीज बो देती है। आदमी को अकेला कर देती है, ताकि उसे साधना आसान हो जाए।
सच शायद यही है कि जरूरत के वक्त आदमी के सबसे अधिक काम दोस्त ही आते है परिवार नहीं ।
जागो मोहन प्यारे … साजिशों के पार देखना सीखो अब आँख खोलने का समय है।
— आज़ाद परिंदा
