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वर्क फ्रॉम होम

वर्क फ्रॉम होम

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वर्क फ्रॉम होम मैने पहली बार सुना जब कोरोना अपना कहर दिखा रहा था । ऐसा नहीं है की कराना से पहले वर्क फ्रॉम होम नहीं होता था , होता था लेकिन इतना पॉपुलर नहीं था ।


किसी आदमी का दिमाग किस तरह से सोचता समझता है अगर इसे समझना हो तो सबसे बेहतरीन तरीका है की उसे एक टॉपिक दिया जाए और तुरंत उस विषय पर बोलने को कहा जाए । शायद बोलने वाला बहुत बढ़िया ढंग से ना बोल सके लेकिन जो भी वो बोलेगा वो सब नैसर्गिक होगा ।


हिंदी दिवस वैसे तो मेरी नजर में कुछ खास नहीं लेकिन जब मुझे लेक्चर देने के लिए बुलाया गया तब छः बार इनकार के बाद जाना ही पड़ा और तकरीबन तीन घंटे तक भाषण भी सुनने पड़े । कई प्रतियोगिताएं भी थी जिनमें से एक थी दिए विषय पर तुरंत भाषण देना ।


भाषण का एक टॉपिक था वर्क फ्रॉम होम । वैसे तो वर्क फ्रॉम होम का कॉन्सेप्ट पुराना है लेकिन अगर एक ऑफिशियल वर्जन की बात करें तो कोरॉना और लॉकडॉन याद आ जाना स्वाभाविक है ।


एक साहब जिसे मेरा जेनरेशन का तो शायद नहीं कहा जा सकता लेकिन नई जेनरेशन का कह देना भी ज्यादती ही होगा, ने वॉक फ्रॉम होम पर तीन मिनट का उपयोगी भाषण दिया । पूरे भाषण को अगर दो लाइन में समेटना हो तो शायद कोई भी आसानी से कर देगा ।


एक लाइन में साहब ने बताया की वर्क फ्रॉम होम के जरिए महिलाएं अपने पर्सनल खर्च के योग्य कमाई कर सकती है । पर्सनल खर्च जैसे की अपने मां बाप को पैसा देना, दोस्तों के साथ फिल्म देखना , मेकअप का सामान खरीदना आदि ।


दूसरी लाइन में साहब ने बताया की वर्क फ्रॉम होम से आदमी घर पर रहता है तो कैसे वो ग्रह क्लेश पैदा करता है ।


पिछले सत्तर सालों में फैलाए जा रहे झूठ और प्रोपेगेंडा किसी आदमी को दिमागी तौर पर किस हद तक बीमार कर सकता है इसका परफेक्ट नमूना शायद गुजर रही जेनरेशन ही है । यह वो जेनरेशन है जिसे लगता है की महिला को बैठा का खिलना उसकी जिमेदारी है और आदमी अपने आप में शैतान है ।


लेकिन अच्छी बात है की आने वाली जेनरेशन (वो जो अभी तैयार हो रही है) इसी मानसिक बीमारी के आखिरी लेवल तक पहुंच चुकी है और अब वो किसी महिला के लिए अपनी जिंदगी बरबाद करने का इरादा नहीं रखते । यह वो जेनरेशन है जो पूर्ण रूप से प्राकृतिक जिंदगी पर वापिस लौट रही है यानी की आने वाली जेनरेशन के लिए महिला उतनी ही उपयोगी है जितनी की प्राकृतिक आवश्यकता है । और प्राकृतिक आवश्यकता के लिए किसी को बेफिजूल जिंदगी भर ढोने के लिए तैयार नहीं ।


शायद झूठ और प्रोपेगेंडा अपने आखिर पड़ाव तक आ पहुंचा है , आखिरी 30 साल ज्यादा से ज्यादा 50 साल ।



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