ज़ख्म
ज़ख्म
ज़ख्म सिलते नहीं
रिसते हैं कुछ वक़्त
फिर सूख कर मन को सख्त बना देते हैं।
उस सूखेपन में दरारें उभर आती हैं
ज़रा सी चोट और ज़ख्म फिर हरा
दर्द ठीक उस दिन जैसा
इतने बरस बाद भी
यादें फूट फूट कर बहने लगती हैं
उन ज़ख्मों से।
ज़ख्म सिलते नहीं
बस ढक दिए जाते हैं।