सुबह
सुबह
जब तुम साथ थे,
नींद में भी मुस्कुराती थी
तुम्हारा चेहरा देखते रात से सुबह हो जाती थी
दिन साल हफ्ते गुज़र रहें हैं अब भी
तुम्हारे बिना आती तो है हर सुबह
मगर कुछ रूठी सी है लगती
अब सुबह की किरण
पहले की तरह मुझे नहीं जगाती।
घड़ी की सुइयों में बंधी ज़िन्दगी
दौड़ती है बहुत तेज़
मगर पहले की तरह
चाय की महक और तुम्हारी खुशबू
दोनों कहीं गुम हैं
अब सुबह बोझिल है
एक नए दिन की फेहरिस्त लेकर
खड़ी दरवाज़े पर
दोपहर बन जाने को आतुर
अब वो मुझे बगीचे में नहीं बुलाती
कोई अधूरा गीत नहीं गुनगुनाती
कुछ नीरस सी नज़र आती है
तुम्हारी तरह
इंतज़ार में एक खूबसूरत कल के
मगर आज को नज़रअंदाज़ कर जाती है।