STORYMIRROR

Vivek Netan

Tragedy

3  

Vivek Netan

Tragedy

ज़िंदगी

ज़िंदगी

1 min
352

कुछ इस तरह से मुझ से नाराज़ हो गई ज़िंदगी 

गाँव की खुली गलियों से शहर ले आई ज़िंदगी 

छूट गई पीछे कहीं वो ठंडी खुशगवार सी हवा 

आसमां को ढके धूल के बादल में ले आई ज़िंदगी 


वो रातों की नींद वो सुकून प्यारी सी सुबह का 

दो पैसों के लालच में सब कुछ बेच आई ज़िंदगी 

हर तरफ दोस्त थे रिश्तेदार थे हाथ थामने वाले 

लाखों की भीड़ में तन्हा जीने ले आई ज़िंदगी 


चाहत थी कुछ कर गुजरने की नाम कमाने की 

उसी उलझन में खुद ही कहीं उलझ गई ज़िंदगी 

रह गया पीछे वो चिड़ियों, तोते से भरा आँगन 

उलझे धागों और कटे पतंगों के बीच ले आई ज़िदगी 


एक आँसू पोछने दौड़ पड़ता था गाँव सारे का सारा 

अब मुझे अकेला मेरे हाल पर छोड़ देती है ज़िंदगी 

छूटे वो आमों के और अमरूदों के खुले खुले बाग़ 

लोहे के गेटों के पीछे छुप के रहने ले आई ज़िंदगी 


हर दुःख हर सुख में शरीक होता था हर कोई 

लगता था की माँ की तरह प्यारी मीठी है ज़िंदगी 

अब हर तरह आवाज़े है पर साथ नहीं है कोई 

अब तो लगता है जैसे सौतेली माँ घर ले आई ज़िंदगी 



Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Tragedy