ज़िंदगी
ज़िंदगी
![](https://cdn.storymirror.com/static/1pximage.jpeg)
![](https://cdn.storymirror.com/static/1pximage.jpeg)
कुछ इस तरह से मुझ से नाराज़ हो गई ज़िंदगी
गाँव की खुली गलियों से शहर ले आई ज़िंदगी
छूट गई पीछे कहीं वो ठंडी खुशगवार सी हवा
आसमां को ढके धूल के बादल में ले आई ज़िंदगी
वो रातों की नींद वो सुकून प्यारी सी सुबह का
दो पैसों के लालच में सब कुछ बेच आई ज़िंदगी
हर तरफ दोस्त थे रिश्तेदार थे हाथ थामने वाले
लाखों की भीड़ में तन्हा जीने ले आई ज़िंदगी
चाहत थी कुछ कर गुजरने की नाम कमाने की
उसी उलझन में खुद ही कहीं उलझ गई ज़िंदगी
रह गया पीछे वो चिड़ियों, तोते से भरा आँगन
उलझे धागों और कटे पतंगों के बीच ले आई ज़िदगी
एक आँसू पोछने दौड़ पड़ता था गाँव सारे का सारा
अब मुझे अकेला मेरे हाल पर छोड़ देती है ज़िंदगी
छूटे वो आमों के और अमरूदों के खुले खुले बाग़
लोहे के गेटों के पीछे छुप के रहने ले आई ज़िंदगी
हर दुःख हर सुख में शरीक होता था हर कोई
लगता था की माँ की तरह प्यारी मीठी है ज़िंदगी
अब हर तरह आवाज़े है पर साथ नहीं है कोई
अब तो लगता है जैसे सौतेली माँ घर ले आई ज़िंदगी