यूँ ही उदासी
यूँ ही उदासी
यूँ ही उदासी को
खुशी के घर
चक्रमण करते हुये
देख रहा हूँ
जब भी उदासी
खुशी के करीब जाती है
झुलस जाती है
और बौद्धिक संसार में
एक धुंध सी छा जाती है
और लोग जीवन की
परिभाषा गढ़ने लगते हैं
जीना छोड़कर
जीवन के प्रयोजन पर
बहस शुरू कर देते हैं
अपना लक्ष्य भूलकर।
अब इस अविश्वास का क्या करें
जो हमारी समस्याएँ
हमारी नहीं हैं
की हैं
इस विश्वास का क्या करें
कि हमने अपने लिये
ढेर सारी समस्याएं
निर्मित कर डाली हैं।
यूँ ही सोचना
और सोचते रहने का क्या
चलो एक कदम और
चलते हैं जीवन की ओर
अपनी ओर
देखते हैं अब तक न दिखे
मनोहारी दृश्य।
