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Minal Aggarwal

Tragedy

4  

Minal Aggarwal

Tragedy

यह रेगिस्तान पार करते

यह रेगिस्तान पार करते

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242

रेगिस्तान में 

दूर दूर तक कोई दरख़्त नहीं था 

कोई जल का स्रोत नहीं था और 

यह प्यास थी कि 

बढ़ती ही जा रही थी 

गला सूखता जा रहा था 

सूरज सिर पर था 

यह रेत को तपा रहा था और 

मुझे जला रहा था 

मुझे ऐसा महसूस हो रहा था कि 

मैं रेत के अंदर धंस रहा हूं 

एक पत्थर की शिला था पर 

रेत की तपती गर्मी से 

एक मोम के माफिक 

कतरा कतरा पिघल रहा था 

मैं ऐसा हो

यह नहीं चाह रहा था पर 

ऐसा हो रहा था 

इस सत्य को स्वीकारने के 

सिवाय 

मेरे पास और कोई चारा नहीं 

था 

काश मैंने अपना घर 

अपना मैदानी इलाका 

अपनी जमीन पर पड़ रहे 

अपने पांवों के निशानों को 

पीछे न छोड़ा होता 

उन्हें साथ लिए चलता 

या

अपना आसमान छोड़कर 

इस जमीन पर 

भटकने के लिए न

निकलता तो 

कितना सुखी होता 

समय रहते 

मैंने जीवन में मुझे क्या मिला 

हुआ है 

उसके महत्व को जाना होता तो 

आज रेत की तरह जो सब कुछ 

हाथ से फिसल गया है 

इस तरह से तो मुझे न

पछताना पड़ता 

अब तो एक आखिरी सहारा 

खुदा का ही है 

ऐ खुदा रहम कर 

आसमान से बरसा दे 

जल की एक बूंद और 

बुझा दे मेरी प्यास 

अपने बंदे को 

जिंदगी क्या है 

यह समझ आने पर 

ऐसे तो न रुला 

बस एक बार कर दे मुझे 

माफ 

मैं वादा करता हूं 

नहीं दोहराऊंगा इस गलती को 

जिंदगी रहते कभी 

दूसरी बार 

पिला दे मुझे मोहब्बत का 

जाम हे परवरदिगार 

पार लगा दे 

मेरी मंजिल के मुझे करीब 

पहुंचा दे 

तेरी हो जो मुझ पे मेहर 

हो जो तेरा साथ तो 

इस सफर में 

कुछ मुश्किल नहीं 

सब आसान लगे 

रेत के एक एक कण में 

तू समाया 

यह रेगिस्तान पार 

करते करते अब तो 

मैं सब कुछ भुलाकर बस

तेरा ही नाम लूं।


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