ये हमारा वो तुम्हारा
ये हमारा वो तुम्हारा
अक्सर याद आता है वो बीता ज़माना,
कैसे अपनों का था घर में आना जाना !
याद आता है बचपन का घर वो हमारा,
जहाँ सुकूँ था, न था कोई यूँ ग़म का मारा !
रहते थे सब साथ मिलकर एक घर में,
कभी लगता बिस्तर आँगन तो नीचे अंबर में !
सदा बनते सब एक दूसरे का सहारा,
कोई नहीं कहता, ये हमारा वो तुम्हारा !
मगर अब तो कोई पहचानते ही नहीं हैं,
अपनी कमीं उनकी स्वीकारते ही नहीं हैं !
संस्कृति व संस्कार अपने भुलाते जाते हैं,
नये युग के सारे चोंचले अपनाए जाते हैं !
अपनी तहज़ीब अपनी नहीं याद इनको,
छोटे -बड़े का कोई लिहाज़ नहीं इनको !
शर्मो हया का है जैसे निकला है जनाजा,
बेहयाई व बेशर्मी इस दौर का है तक़ाज़ा !
