यादों की अल्मारी
यादों की अल्मारी
आज सम्हालने बैठी अपनी
यादों की अल्मारी
खोले जो पट पाया भीतर भरी पड़ी थी सारी
कैसे मैं सहेजूँ जीवन भर इतना भी लगे ये सहज नहीं
इक कोने में खुशियों की गठरी
दूजे में प्रेम पोटली थी
मीठी यादें बाँध के रक्खी
मैंने गमों के बोझ तले
पर इतनी नादानी क्यों की
गम वहाँ छोड़े थे मैंने खुले
कुछ ताने उलाहने भी थे जो मिले थे मुझको कभी कभी
उनकी जगह पर अल्मारी में सहेज रखी थी अब भी
अहम की थैली खुली पड़ी थी जतन से कैसे सहेजी थी
अच्छी यादें बँधी पड़ी थीं
बुरी न मैंने समेटी थी
ओह क्या किया ये मैंने अब तक
किसे संजो कर रखा था
बुरे लम्हे ही याद किये बस
दिल घायल कर रखा था
जो बीत गयी सो बात गयी
और मैं ये कहावत जानती भी
समझा पर केवल किताबी ज्ञान
मैं सच में कहाँ इसे मानती थी
अल्मारी मेरी खुली पड़ी
मैं गहन सोच में डूब रही
अब उसको मैं ही सँभालूँगी
जो मूर्खता अब तक करती रही
मैंने फिर से सहेजा जतन करे
झटपट मैं उठी उत्साह भरे
प्रेम मुक्त किया, खोली खुशियाँ
ताने उलाहने बन्द करे
गम को भी बाँधा गठरी में
मीठी यादों को खोल दिया
अहम की थैली कस के कसी
फिर नयी ऊर्जा से मैं भरी
जब आत्ममंथन जो आज किया
सीखा मैंने अनमोल पाठ
पर कोरा किताबी ज्ञान नहीं
मैंने सीख यही बाँधी है गाँठ
जो होगा अपने पास वही तो हम संसार को बाँटेंगे
तो दुखभरी यादों की गठरी हम इसी वक्त ही बाँधेंगे।
