याचक
याचक
नारी तुमने खुद को न पहचाना
पुरुष को तुमने अग्रणी जाना
पुरुष सदा ही रहा है याचक
वृद्ध युवा या फिर हो बालक।
जीवन जब आरंभ हुआ
माँ बन तुमने गोद लिया
तुम्हारे वक्ष से बालक रूप में
उसने था अमृत पान किया।
थाम तुम्हारी उंगली उसने
जीवन में चलना सीखा
तुम ही उसकी प्रथम गुरु थीं
पढ़ना, लिखना, बोलना सीखा।
युवा हुआ तो बन कर सहचर
तुमने उसको प्रेम दिया
अन्नपूर्णा बन कर तुमने
उसकी क्षुधा को शांत किया।
छोटे-छोटे कामों के हेतु
वह तुम पर होता निर्भर
मुस्कान तुम्हारे चेहरे पर हो
वह प्रयत्नशील रहता दिन भर।
वृद्धावस्था में भी वह
तुम पर ही निर्भर रहता है
पत्नी यदि साथ छोड़ जाए
स्मृतियों में उसकी जीता है।
तुम हो दाता गर्व करो
मन को न अपने मलिन करो
तुम क्षमाशील ममता की मूरत
इस रूप को तुम न कभी तजो।।