या देवी सर्वभूतेषु
या देवी सर्वभूतेषु
" या देवी सर्वभूतेषु ..."
तुम रोज़ सुना करतीं
उग आते तुम्हारे शरीर पर
कितने ही मायावी हाथ
सक्षम,
अनवरत गतिशील
देखा करती मैं तुम्हारे इस रूप को
कुछ भय से
कुछ विस्मय से
सोचती, मेरे क्यों दो ही हाथ हुए भला !
पर
तुम मुझे सदा दुलारतीं
बस अपने दोनों स्नेहिल हाथों से।
अब मेरे शरीर पर भी उग आए हैं
कई कई हाथ
सक्षम,
अनवरत गतिशील
सोचती हूं कभी कभी
कुछ थकी थकी मुस्कान लिए
मेरे हाथों में अब वो तरल स्नेह कहां
कि मैं
तुम सा ही दुलराऊं अपने बच्चों को !
अब दुनिया बसती है
मेरे दो हाथों की अंगुलियों में,
अंगुलियों के पोरों में
बटन सोचते, बटन बोलते
कहते सुनते भी ये ही,
उलझाते, सुलझाते जीवन को
बटन ही चलते, बटन ही थमते
बटनों ने बांधा जीवन को ।
याद आता है तुम्हारा रोज़ रोज़ सुनना
" या देवी सर्वभूतेषु ..."
और अपने दोनों हाथों को सहेजे रखना;
सोचती हूं
हाथ तो उगा लिए हमने मायावी
पर
अपने हाथों की माया ही बिसराई !!