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Tanmay Mehra

Abstract

2.5  

Tanmay Mehra

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व्यथा नदी की

व्यथा नदी की

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चट्टानों से गिर कर मैं सागर में आ जाती हूँ 

इतना गिरने के बाद भी हर दिल को भा जाती हूँ।

 

कल कल की आवाज में प्यारे गीत सुनाती हूँ 

चट्टानों से गिर कर मैं सागर में आ जाती हूँ।

 

पत्थरो से टकरा कर दिल जख्मी है मेरा

फिर भी लाखों की प्यास बुझाती हूँ।


कब मिलेगा इन वादियों का हमसफर मुझे

यही सोच-सोच कर घबराती हूँ।


लाख गम हैं दिल मेरे, फिर भी

उछलती कूदती और मुस्कराती हूँ।


चट्टानों से गिर कर मैं सागर में आ जाती हूँ 

सागर ही मंज़िल मेरी सागर ही कारवां 

बस सागर में ही समा जाती हूँ।


गिर कर उँचे झरनों से अपने अस्तित्व को खोती नहीं

एक सुन्दरता हर बार मैं ला जाती हूँ।


ना जमीं ना आसमाँ ना ही कोई फरिस्ता हूँ 

मैं तो बस चट्टानों से गिरती हुई एक नदी हूँ।

 

सागर ने ही समाया मुझे अपने अन्दर 

बस उसी के एहसान तले दबी हूँ। 


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