वसुधैव कुटुम्बकम
वसुधैव कुटुम्बकम
माना की जब तलक
पेट मेरा भरा नहीं
किसी और को मैं
कुछ दे सकता नहीं
लेकिन भूलता हूँ मैं वहीं
कि यहीं तो है
इम्तिहान की घड़ी
इस वक़्त जो मैं
कुछ कर जाऊँगा
वही तो जग की रीत
से भिन्न होगा
तभी तो प्रभु मिलन का
आभास होगा
तभी टी भगवान बुद्ध
का आगाज़ होगा
माना कि जब तक मेरा मन
अनन्दित नहीं
नहीं मांग सकता
तब किसी के
लिए ख़ुशी मैं
लेकिन क्यूँ भूल जाता हूँ मैं
मां अपनी
जिसने हर दुख की घड़ी में भी
मांगी मेरी खैर और ख़ुशी
दुखी मन होते हुए भी
रोते हुए चक्षुओं से भी
जिसने मांगी ख़ुशी दूसरों की
उसी मन से तो बहती है
आनन्दमयी मां गंगा
सुन्दर , स्वच्छ और हसीं
वहीं से तो होती है
वसुधैव कुटुम्बकम
की शुरुआत नई।
