वर्क फ्रॉम होम
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छोड़ आये पीछे हमनें दिनचर्या की वह राग सुहानी,
बंद कमरों में अब मुस्करातें हैं सोचके वह यादें पुरानी.
न महसूस कर पा रहे हैं दिन और रात का फरक इस लम्हे में,
बंध गया समय जैसे इस आपातकालीन भरे नरक के सदमे में...
कार्यालय से मिलती है हमें सलाह की देखो पहले अपने परिवार को,
लेकिन इनके कार्य सूचि के मक्कड़ जाल से मिलती है हमें फुरसत केवल इतवार को...
एक कुर्सी पे बैठ बैठ के बन गया है कमर जैसे कमरा,
अपनी सख्सियत तो छोड़ो आईने ने भी मना कर दिया देखना अपना चेहरा...
अकेलापन मिटा रही है सबमे काल्पनिक बवंडर को,
बुझ गए हैं मेल मिलाप वाले दिए और बढ़ा रही है ये जीवाणु अपने मौत के समंदर को...
दोस्तों घर पे काम के राग में न बचा जैसे कोई अंतरा और न कोई मुखड़ा,
इन् शब्दो के बीच ख़तम करता हूँ अपने कारवां का यह छोटा सा दुखड़ा।
