वक़्त-दर-वक़्त
वक़्त-दर-वक़्त
जिंदगी यूं ही गुज़र जा रही,
जैसे कोई ग़म निगल जा रही।
वक़्त-दर-वक़्त दफन हम किये जा रहे,
खुद अपनी कफ़न हम सीए जा रहे।
हो सके तो मृदा तुम, दे जाना मुझे,
आखिर मिट्टी में तो हम मिले जा रहे।
दिल के दरगाह पे सज़दे किये थे कभी,
बस उसी को संजोय, फना हो रहे।
अरमानों के समां जलाए थे कभी,
वक़्त-दर-वक़्त उसी में जले जा रहे।
राख बनकर फिज़ा में उडूँगा कभी,
तब अपनी मंजिल से मिलूंगा कभी।
जिंदगी यूं ही गुज़र जा रही,
जैसे कोई ग़म निगल जा रही।
