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Mamta Gupta

Abstract

4  

Mamta Gupta

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वो सतरंगी पल

वो सतरंगी पल

2 mins
360


ना कोई फिक्र थी ,औऱ ना ही कोई जिक्र था ...

बस था तो मस्ती और लापरवाही से भरा कल ...

ना जाने कहा गया वो मेरा सुनहरा पल ...


बहुत याद आते है वो सतरंगी पल ...


मस्त रहते थे अपनी ही मस्ती में ...

अपनो संग छोटी सी प्यार से भरी बस्ती मे ...

खुल के जीते थे जैसे खुला हो ख्वाहिशो का नल ...


बहुत याद आते है वो सतरंगी पल ...


जहां नही थी ख्वाहिश ज्यादा पाने की ...

बस खुशी थी अपनो के संग हर वक्त साथ रहने की ...

अब तो जी रहे है जैसे मछली बिना जल ...


बहुत याद आते है वो सतरंगी पल ...


इंद्रधनुष के रंगों जैसे सतरंगी खेल था ...

उच्च नीच , रंगभेद , का ना कोई मेल था ...

एक ही था सब चाहे जमीन , आसमान या थल ...


बहुत याद आते है वो सतरंगी पल ...


कम सुख सुविधाओं में भी कितना प्यारा बचपन था ...

चाय के साथ रूखी रोटियां का स्वाद भी निराला था ...

खाते हुए गाना गाने लगती जैसे कुहुँ कुहुँ करती कोई कोयल ...


बहुत याद आते है वो सतरंगी पल ...


माँ का प्यार , पापा की फटकार , दादा दादी का दुलार ...

भाई बहनों के साथ हँसी ठिठोली , नाना नानी की लोरी ...

वो अद्भुत सा प्यार बहुत याद आता है आज भी हर पहल ...


बहुत याद आते है वो सतरंगी पल ...


हर बात पर मचल जाना , जिद्द पकड़ कर बैठ जाना ...

बावरी बन इठलाती तितलियों के पीछे भागना ...

बारिश में मिट्टी के ढेर में बनाती अपना महल ...


बहुत याद आते है वो सतरंगी पल ...


आज झलकते है आँसू उन स्मृतियों को महसूस करके ,

मन भी गुदगुदाने लगा है स्मृतियों को एक बार फिर से जीने को ...

आज भी ऊपर से सख्त अंदर से नरम , मानो हूँ कोई कटहल ...


बहुत याद आते है वो सतरंगी पल ...



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