वो शुक्रिया जो रह गया
वो शुक्रिया जो रह गया
शुक्रिया…
उन पलों का,
जो समय की डायरी में कभी दर्ज नहीं हुए,
पर मेरे भीतर
गीली मिट्टी की तरह
अपना निशान हमेशा के लिए छोड़ गए।
शुक्रिया…
उस साथ का,
जिसे हमने कभी नाम नहीं दिया,
जिसे दुनिया ने रिश्ता नहीं माना,
पर मेरी तन्हा रातों ने
उसे अपना आश्रय समझ लिया।
तुम…
मेरे जीवन की वह खामोशी थीं
जिसमें शब्द कम,
पर एहसास बहुत गहरे थे।
एक ऐसी रोशनी—
जो पूरी नहीं थी,
पर मेरे अँधेरों को
हल्का कर देती थी।
हमारा संबंध…
पूरा भी नहीं था,
मिटा हुआ भी नहीं था।
दो अधूरे शब्दों की तरह—
एक ही पंक्ति में खड़े थे,
पर कभी मिल नहीं पाए।
कभी लगता है
तुम एक ऐसी आदत थीं—
जिसे छोड़ देने पर भी
जीवन अधूरा लगता है,
और पा लेने पर भी
मन को चैन नहीं मिलता।
शुक्रिया…
उन यादों का,
जो रात के सन्नाटे में
परदों की तरह हिलकर
तुम्हारी याद का एक और घाव दे जाती हैं।
उन हँसी के क्षणों का,
जो मुस्कान की ओट में छिपे हुए
किसी गहरे दुख की बारिश लिए आते थे।
पर सबसे ज़्यादा पीड़ा…
इस बात की है कि—
हम आख़िरी बार मिल भी न सके।
वह एक मुलाक़ात अगर हो जाती,
तो शायद यह दर्द
इतना तीखा न होता।
और सबसे गहरा घाव…
यह कि मैं तुम्हारी आँखों में देखकर
वह शुक्रिया नहीं कह पाया,
जो मेरे दिल में
एक भारी पत्थर की तरह
अटका रह गया है।
एक ऐसा बोझ—
जो पूरी उम्र
अपनी ठंडक से चुभता रहेगा।
यह बात…
जीवन भर कष्ट देगी,
ठीक उस कांच के टुकड़े की तरह
जो पाँव में धँस जाए
और निकालने का कोई उपाय भी न हो।
एक पीड़ा—
जो मरहम से नहीं,
बस आदत से चलती है।
तुम गई नहीं हो…
तुम बस
एक दहकते हुए दुख में बदल गई हो—
एक गहरी चोट,
जो मुझे आगे बढ़ना भी सिखाती है
और भीतर से तोड़ भी देती है।
शुक्रिया…
उस अधूरे प्रेम का,
जिसने मुझे मिटाया भी,
और मेरी आत्मा में
एक नई गहराई भी उकेर दी।
शुक्रिया…
उस सफ़र का हिस्सा बनने के लिए
जो पूर्ण नहीं हुआ—
पर मेरी पूरी ज़िंदगी की
सबसे गहरी कथा
तुम्हीं से लिखी गई।

