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Prashant Kaul

Abstract

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Prashant Kaul

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वो सहमी सी हंसी

वो सहमी सी हंसी

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वो सहमी सी हंसी और आंखों में नमी

शायद तुम नाराज़ थी किसी बात पर


मैं भी तो अपने काम में कुछ ऐसा मसरूफ़ था

की इल्म ही नहीं हुआ कब तुम्हारी आंखें भर आई


उन भरी आंखों से जब तुमने मुझे देखा

तो उम्मीद थी तुम्हें कि मैं उन्हें बहने से रोक लूंगा


पर मेरी नज़र तो टिकी थी बस मेरे काम पर

जो काम से ज़्यादा मेरी जिंदगी हो चला था

पर तुम्हारे लिए तो मैं ही ज़िंदगी था और मैं ही जहां


कुछ समय तो लगा मुझे मेरी नई जिंदगी के साथ

और जब मेरा काम मुझे मसरूफ़ ना रख पाया तो मेरी नजर उठी


मैंने तुम्हें पुकारा एक बार नहीं बार-बार पुकारा

पर तुम ना थी ,था तो बस तुम्हारा अक्स

जिसे तुम छोड़ गयी थी 

अपने इस मसरूफ़ जहां के लिए ।।


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