वो भी तो किसी की बेटी थी
वो भी तो किसी की बेटी थी
वो भी तो किसी की बेटी थी, पीड़ा जिसकी हमने की अनदेखी थी
मेरी तो नहीं, मरी तो नहीं ये सोच, अंतर्मन की लाश हमने समेटी थी ।
रोज़ सुबह घर घर खबर बन पहुंचती सब के समीप अखबारों से,
हर कूचे-गली, हर नुक्कड-आंगन पर,
हर बड़े-छोटे गलियारों में।
अक्षर बन बस भाषा में वो सिमट गयी, घायल कराहती कही पड़ी
कही धोखे का शिकार हुई, कही वस्तु की तरह किसी ने बेची थी।
कायर थे बचपन से ही हम और अफसोस कुछ न बदला जब हुए बड़े
आंख मूंदकर, कान बंद कर, मूक दर्शक बन चुपचाप घर पर रहे पड़े।
जिव्हा को अपनी ताला दे, लाचार बन सोचा हम क्या कर सकते है?
जिसकी ये है पीडा, जिसका ये दंश है वो अपनी पीडा स्वयं सहे।
दुर्बलता को हमने कही मजबूरी कही हस्तक्षेप न करने का नाम दिया
बस इधर-उधर व्यर्थ अफसोस करने या व्यर्थ चर्चा करने का काम किया।
सुना आपने, पढ़ा क्या, सुना तुमने बस इस सम्वाद का हर ओर संचार
क्यों ना लिया प्रण, ले तलवार शीश काटने का, दानव का भर हुंकार।
निर्ममता की सीमा न रही अब ईंधन की तरह फूंक दी जाती है
एक बार नहीं कई बार आत्मा पे वार निरंतर वो सहती जाती है।
कभी मारी-पीटी तो कही अपमानित, कहीं द्वेष का शिकार हो जाती है
चुनर फाडकर कही आंचल खींचता है कोई, वो तिल-तिल कर मर जाती है।
बड़ी-छोटी या हो अधेड, आयु उसकी कितनी इस बात का कोई मोल नहीं
शहर या गांव में मरती प्रतिपल, जीते जी कितना, सम्भव इसका तोल नहीं।
थी चाहे वो तितली सी चंचल, नन्ही आफ्शा या सपने संजोती निर्भया
कहाँ थे हम सब जब दानवों ने, बेटियों को निर्ममता से छलनी किया।
बस कुछ पल अफसोस किया, बस कहा ये गलत हुआ, बहुत बुरा हुआ
समय का पहिया घूमा जब, सब भूल सामान्यता से अपना जीवन जिया।
जलाकर ज्योत समूह मे कुछ पल, कुछ क्षण, चले कुछ दूरी तक साथ
फिर अपने स्वार्थी जीवन के फेरे में,
लगे ढूंढने लकीरे दिखा अपना हाथ।
सब बोले दुख है हमको, सहानुभूती भी, ये जहाँ भी जो अनर्थ हुए
आंखों से अश्रु भी बहे, पर जल्द ही शुष्क होकर सब पोखर सूख गये।
क्यों रोका तूफान हमने और ये ज्वालामुखी, क्यों ना होने दिया वज्रपात?
चीख-चीखकर प्रण क्यों न लिया, दानव-वध का क्यों न कही सच्ची बात।
क्या रक्त हमारी धमनी का परिवर्तित अब पानी हुआ?
क्यों खौलता नहीं ये लाल रंग, बस क्या बहने को बना?
यदि अब भी हम खामोश रहे धिक्कार ऐसे अस्तित्व पर
पशु-पक्षी भी अचम्भित है, कहते है मनुष्य, लाज से डूब मर।
तुमसे अच्छे तो हम है, जो भाषा से अनभिज्ञ है
इस जीवन को पाने के लिये, ईश्वर के कृतज्ञ है।
अपना भोजन, जल और बसेरा ले संतुष्ट है
तुम जैसे विक्रत नहीं, निर्दय नहीं, न दुष्ट है।
करते हो पूजा माँ की अर्पण कर मेवा, फल और फूल
जब वही स्त्री बन जाती है, सामने बिछा देते हो शूल।
काल का कहीं बनती ग्रास, कहीं बनी जीवित चिता
लहू-लुहानकर छोड़ा जिसे, खोज रहे माता-पिता।
वो भी तो अपने घर का दीपक थी, मान थी, सम्मान थी
माता-पिता की लाड़ली, उनके मस्तक का अभिमान थी।
पल में फिर मार दिया जब, प्रश्नो-तानों की छुरी घोंपी थी
त्राहिमाम जो ये अनर्थ हुआ, वो किसकी बेटी थी?
जागो सब चिरनिद्रा से, कब तक मुँह छुपाओगे?
क्रांती लाओ अब, वरना तुम भी नष्ट हो जाओगे।
नाता हर बेटी से है, ये मूल सत्य अब जान लो
निश्चित करना है वध दानव का, अब तुम ये ठान लो।
मत पीठ फेरो ऐसे सब, कुछ तो ये ध्यान रखो
स्रिष्टी की जननी की रक्षा और उसका सम्मान करो।
जो बिखर गयी अंतर्मन से, जो नहीं रही आत्मा से
हम सबका वो अंश थी, हम सब ने वो देखी थी।
कोई और नहीं कही से नहीं, जन्मी पली यही थी
इस मातृभूमि की संतान, वो हम सब की बेटी थी।
वो हम सब की बेटी थी, वो हम सब की बेटी थी।।
