भीतर का रावण
भीतर का रावण
जला भीतर के रावण को
जो पाप तेरे मन में हो ॥
एक प्रयास तो अवश्य करो
मन के रावण से अब लड़ो ॥
है छिपा हुआ तुम में बैठा जो
रूप बदलकर रहता वो ॥
जब तक वो तुम में जीवित है
सब जन उससे पीड़ित है ॥
ग्रसित सहस्त्र पापों से
तुम से ही पोषण पाता है ॥
नाश कर हर मर्यादा का
आत्मा छलनी कर जाता है ॥
वो लाता अंधकार, वो लाता विनाश
रह जाता केवल तम, न रहता प्रकाश॥
स्वर्ण लंका भी तो ध्वस्त हुई
अहंकार रूपी सर्प-विष से ग्रस्त हुई ॥
क्या तुम को कुछ दिखता नहीं ?
क्या तुम को कुछ बुझता नहीं ?
क्या सही, क्या अनुचित हर बार
खोलो मन-मस्तिष्क के द्वार ॥
कुछ तो लाज शर्म करो
भ्रम में अब तो न रहो ॥
बस अब रावण दहन करो
भीतर का रावण तो समक्ष है
प्रमाण क्यों ? सब प्रत्यक्ष है ॥