वक़्त
वक़्त
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ये कम्बख्त वक़्त ठैरता कहां है ?
चलते चले जाना उस का फ़ितरत है
गुज़रे हुए लम्हों को पिरोते पिरोते
नये चेहरे होते हैं सामिल तोह पुराने छूट जाते हैं
जाने कि ख्वाइश तो होती है
दोबारा उन लम्हों के सफ़र में
उन में से कुछ पल हसीन हैं
और कुछ दर्द भरे
मुमकिन कहां है ??
सब को उतारने दिल के आईने में
पर कुछ अक्स रेह जाते हैं
हमेशा हमेशा के लिए
कभी खिलखिला के हंसे
कभी दो बूंद आंसू बहा दी उनके याद में
बिना इत्तिला किए
दस्तक दे जाते हैं यादों के झरोखों में
जितना भी कोशिश करो उन्हों पकड़ ने की
होशियार तितली की तरहा फिसल ही जाती है
ये वक़्त भी ना दगा़बाज़ है
ख़ामोशी से शामिल और रुख़सत होता रहता है।