ARVIND KUMAR SINGH

Abstract

2.7  

ARVIND KUMAR SINGH

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वक्‍त

वक्‍त

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गृहों की उठा पटक देखी

और देखीं कुदरत की मार

अरबों खरबों वर्षों से मैंने

देखे सभी सृष्टि आकार


महायुद्धों की श्रंखला देखी

रक्‍तरंजित देखी मैंने धरा

इंसानियत पर मरते देखे

व घड़ा बहुतों का पाप भरा


अबला पर अत्‍याचार देख

मैं आंख मूंद नहीं पाया

घटनाक्रम को देख के मैं

पल भी वहां न रुक पाया


भूत पिशाच के चक्‍कर में

देखे बरबाद गुणी बहुतेरे

मंगलिक जो बताया तो

लगा रहे पीपल संग फेरे


अन्‍तर्यामी हूँ पर बेबस

मैं रोक नहीं कुछ पाया

कुकर्मी को छुपते देखा

भले कहीं न छुप पाया


मूकदर्शक ही बन कर देखे

मैंने जन्‍म मरण के बंधन

कहीं पर रंगीली रातें देखीं

कहीं दर्द और रुदन क्रन्‍दन


अचूक दृष्टि से देखता हूँ मैं

सबको सुनता अपने कान

परखने की ताकत है मुझमें

वक्‍त हूँ, कहते मुझे बलवान।


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