वक्त की व्यथा
वक्त की व्यथा
दोस्तो इन दिनो ;
ऊपर तो आसमानी,
परंतु नीचे कोहरा छाया है।
मुख पर भाव नहीं,
परंतु भीतर मातम छाया है।
अगर हम प्राकृत होते,
तो यह सृष्टि अप्राकृत न होती।
समस्या बीमारी में नहीं,
मानव में न होती।
मैं यहाँ कुछ सिखानें नहीं,
बताने आया हूँ।
सत्यता को यूँ हीं,
दर्शाने आया हूँ।
समा बीता....
इस बार मुख से राम निकला हैं!
जानतें हैं क्यूँ,
क्योंकि इस बार पड़ोसी पर नहीं !
कोहराम खुद पर आया हैं।