STORYMIRROR

Usha R लेखन्या

Abstract

3  

Usha R लेखन्या

Abstract

वक्त के आसमाँ पर

वक्त के आसमाँ पर

1 min
313

वक्त के आसमाँ पर है थोड़ी धुंध तो है थोड़े बादल

देखती हूँ जब भी इन्हे, सिमट जाता है आँचल


आस से देखता आँचल, जिससे न बिछड़ने का मन था

अहसास का आंचल, जिससे न मिलने का कभी मन था


जितना बच के चलो सामने आ जाता है वह

सामने आने पर बहुत तड़पाता है वह

करवाता है याद उस वक्त की जब नही थी कोई परवाह

 नहीं था किसी से कोई एतराज़ , सब थे अपने और खास


बस खुद से प्यार था, खुद पर बेइन्तहा एतबार था

नहीं तोड़ सकता था कोई उस हौसले और विश्वास को

हँसना हँसाना रोना रुलाना उस खेल को

जीतना जिताना हर साँस ए मुख्तयार था


जिन्दा है अभी या ख़त्म हो गया?

 सुलग रहा है या राख हो गया?

उफ़ान उठता है या शान्त हो गया?

या उसी सोच के साथ दफ़न ए ख़ाक हो गया?

उसी सोच के साथ दफ़न ए ख़ाक हो गया ।

दफ़न ए ख़ाक हो गया, दफ़न ए ख़ाक हो गया।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract