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S Ram Verma

Abstract

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S Ram Verma

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विकल विरह !

विकल विरह !

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हर साँझ पहर जब

देवालय देवालय में

दीपक जल सिहरता है !


तब तब लौ उसकी

उठ उठ कर मानो

ऐसे लपकती है !


मानो जैसे कोई

विकल विरह तब

तब पिघलता है !


साँझ के धुंधलके में

क्षण-क्षण संकोचित

संगम होता रहता है !


फिर नदी सागर

को खुद में जैसे

डुबोती है !


प्राणों में प्रतीक्षातुर

प्रीत लिए दिन फिर

रात में खो जाता है !


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